अध्याय 2 : भारत का भौगोलिक स्वरूप

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भारत में हर प्रकार की भू आकृतियों पाई जाती है जैसे पर्वत मैदान मरुस्थल पठार तथा दीप समूह अब हम भारत के मुख्य भू आकृतियों की विशेषताएं तथा संरचना के बारे में जानेंगे

भारत एक विशाल भूभाग है इसका निर्माण विभिन्न भूगर्भीय कालों के दौरान हुआ है जिसने इसके उच्चा बच्चों को प्रभावित किया है भूगर्भ है निर्माणों के अतिरिक्त कई अन्य प्रक्रियाओं जैसे अपक्षय अपरदन तथा निक्षेपण के द्वारा वर्तमान उच्चा बच्चों का निर्माण तथा संशोधन हुआ है
प्लेट विवर्तनिक का सिद्धांत

 इस सिद्धांत के अनुसार पृथ्वी की ऊपरी पर पट्टी 7 बड़ी एवं कुछ अन्य छोटी प्लेटों से बनी है प्लेटो की गति के कारण प्लेटों के अंदर एवं ऊपर की ओर स्थित महाद्वीपीय शैलो में दबाव उत्पन्न होता है जिसके कारण वलन ज्वालामुखी क्रिया होती हैं

 

 

प्लेटो की गतियां को तीन वर्गों में विभाजित किया गया है

अभिसारी परिसीमा
जब प्लेटें एक दूसरे के करीब आती हैं

अपसारित परिसीमा
जब प्लेट एक दूसरे से दूर जाती हैं

रूपांतर परिसीमा
जब प्लेट एक दूसरे के साथ क्षेतिज दिशा में गति करती है

भारत के वर्तमान स्थल आकृतियों का विकास भी इस प्रकार की गति उसे प्रभावित हुआ है

 

 

 हिमालय पर्वत श्रृंखला का निर्माण

सबसे प्राचीन भूभाग गोंडवाना भूमि का एक हिस्सा था गोंडवाना भूभाग के विशाल क्षेत्र में भारत ऑस्ट्रेलिया दक्षिण अफ्रीका दक्षिण अमेरिका तथा अंटार्कटिका के क्षेत्र शामिल थे संवहनीय धाराओं ने भूपर्पटी को अनेक टुकड़ों में विभाजित कर दिया और इस प्रकार भारत-ऑस्ट्रेलिया की प्लेट गोंडवाना भूमि से अलग होने के बाद उत्तर दिशा की ओर प्रवाहित होने लगी इसके पश्चात यह यूरेशियन प्लेट से टकराई जिसके परिणाम स्वरूप वलित होकर हिमालय तथा पश्चिमी एशिया की पर्वतीय श्रृंखला के रूप में विकसित हो गई

 

 

 भारत की मुख्य भौगोलिक वितरण

1 हिमालय पर्वत श्रृंखला
2 उत्तरी मैदान
3 प्रायद्वीपीय पठार
4 भारतीय मरुस्थल
5 तटीय मैदान
6 द्वीप समूह

 

 

 

 1 हिमालय पर्वत

भारत की उत्तरी सीमा पर विस्तृत हिमालय भूगर्भीय रूप से युवा एवं बनावट की दृष्टि से वलित पर्वत श्रंखला है यह पश्चिम पूर्व दिशा में सिंधु से लेकर ब्रह्मपुत्र तक फैला है यह विश्व की सबसे ऊंची पर्वत श्रेणी है यह 24 किलोमीटर की लंबाई में फैला एक अर्धवृत्त का निर्माण करता है यह कश्मीर में 400 किलोमीटर चौड़ा है तथा अरुणाचल प्रदेश में 150 किलोमीटर

 

हिमालय को तीन भागों में बांटा जा सकता है

 

1. आंतरिक हिमालया या हिमाद्रि

यह उत्तरी भाग में स्थित श्रंखला है यह सबसे अधिक सतत श्रंखला है जिसमें 6000 मीटर की औसत ऊंचाई ऊंचे शिखर हैं इसमें हिमालय के सभी मुख्य शिखर हैं इस भाग का क्रोड ग्रेनाइट का बना है यह श्रंखला हमेशा बर्फ से ढकी रहती है तथा इससे बहुत सी बीमारियों का प्रभाव होता है

 

2, हिमाचल या निम्न हिमालय
हिमाद्रि के दक्षिण में स्थित संखला को हिमाचल या निम्न हिमालय के नाम से जाना जाता है इस श्रंखला का निर्माण अत्यधिक संपीड़ित तथा परिवर्तित शैलो से हुआ है इसकी ऊंचाई 3700 मीटर से 4500 मीटर के बीच है औसत चौड़ाई 50 किलोमीटर तथा पीर पंजाल श्रंखला सबसे लंबी तथा सबसे महत्वपूर्ण संखला है तथा धौलाधार महाभारत श्रृंखलाएं भी महत्वपूर्ण है इस संखला को पहाड़ी नगरों के नाम से जाना जाता है

 

3, शिवालिक
हिमालय की सबसे बाहरी संखला को शिवालिक कहा जाता है इनकी चौड़ाई 10 से 50 किलोमीटर तथा ऊंचाई 900 से 11 सौ मीटर के बीच है यह संख्याएं उत्तर में स्थित मुख्य हिमालय की श्रृंखलाओं से नदियों द्वारा लाई गई अवसादो से बनी है

दिव्य हिमाचल तथा शिवालिक के बीच में स्थित लंबवत घाटी को दून के नाम से जाना जाता है कुछ प्रसिद्ध दून देहरादून कोटलीदून एवं पाटलीदून

 

 

 उत्तरी मैदान

उत्तरी मैदान तीन प्रमुख नदी प्रणालियों- सिंधु, गंगा एवं ब्रह्मपुत्र तथा इनकी सहायक नदियों से बना है। यह मैदान जलोढ़ मृदा से बना है। लाखों वर्षों में हिमालय के गिरिपाद में स्थित बहुत बड़े बेसिन (द्रोणी) में जलोढ़ों का निक्षेप हुआ, जिससे इस उपजाऊ मैदान का निर्माण
हुआ है। इसका विस्तार 7 लाख वर्ग किमी के क्षेत्र पर है। यह मैदान लगभग 2,400 कि०मी० लंबा एवं 240 से 320 कि मि चौड़ा है ।

उत्तरी मैदान को मोटे तौर पर तीन उपवर्गों में
विभाजित किया गया है।

 

उत्तरी मैदान के पश्चिमी भाग को पंजाब का मैदान कहा जाता है। सिंधु तथा इसकी सहायक नदियों के द्वारा बनाये गए इस मैदान का बहुत
बड़ा भाग पाकिस्तान में स्थित है। सिंधु तथा इसकी जलोढ़ों सहायक नदियाँ झेलम, चेनाब, रावी, ब्यास तथा सतलुज हिमालय से निकलती हैं। मैदान के इस भाग में दोआबों की संख्या बहुत अधिक है। गंगा के मैदान का विस्तार घध्यर तथा तिस्ता नदियों के बीच है। यह उत्तरी भारत के राज्यों हरियाणा, दिल्ली, उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड के कुछ भाग तथा पश्चिम बंगाल में फैला है। ब्रह्मपुत्र का मैदान इसके पश्चिम
विशेषकर असम में स्थित है।

 

आकृति  भिन्नता के आधार पर उत्तरी मैदानों को चार भागों में विभाजित किया जाता है ।

नदियाँ पर्वतों से नीचे उतरते समय शिवालिक की ढाल पर 8 से 16 कि.मी. के चौड़ी हैं पट्टी में गुटिका का निक्षेपण करती हैं। इसे ‘भाबर’ के नाम से जाना जाता है। सभी सरिताएँ इस भाबर पट्टी में विलुप्त हो जाती हैं। इस पट्टी के दक्षिण में ये सरिताएँ एवं नदियाँ पुनः निकल आती हैं। एवं नम तथा दलदली क्षेत्र का निर्माण करती हैं, जिसे ‘तराई‘ कहा जाता है। यह वन्य प्राणियों से भरा घने जंगलों का क्षेत्र था।

 

बँटवारे के बाद पाकिस्तान से आए शरणार्थियों को कृषि योग्य भूमि उपलब्ध कराने के लिए इस जंगल को काटा जा चुका है। इस क्षेत्र के दुधवा राष्ट्रीय पार्क की स्थिति ज्ञात कीजिए।

उत्तरी मैदान का सबसे विशालतम भाग पुराने जलोढ़ का बना है। वे नदियों के बाढ़ वाले मैदान के ऊपर स्थित हैं तथा वेदिका जैसी आकृति प्रदर्शित करते हैं। इस भाग को ‘भांगर‘ के नाम से जाना जाता है। इस क्षेत्र की मृदा में चूनेदार निक्षेप पाए जाते हैं, जिसे स्थानीय भाषा में

कंकड़‘ कहा जाता है। बाढ़ वाले मैदानों के नये तथा युवा निक्षेपों को ‘खादर‘ कहा जाता है। इनका लगभग प्रत्येक वर्ष पुननिर्माण होता है, इसलिए ये उपजाऊ होते हैं तथा गहन खेती के लिए आदर्श होते हैं।

 

 

 प्रायद्वीपीय पठार

प्रायद्वीपीय पठार एक मेज की आकृति वाला स्थल है जो पुराने क्रिस्टलीय, आग्नेय तथा रूपांतरित शैलों से बना है। यह गोंडवाना भूमि के टूटने एवं अपवाह के कारण बना था तथा यही कारण है कि यह प्राचीनतम भूभाग का एक हिस्सा है। इस पठारी भाग में चौड़ी तथा छिछली घाटियाँ एवं गोलाकार पहाड़ियाँ हैं।

 

इस पठार के दो मुख्य भाग हैं
मध्य उच्चभूमि
दक्कन का पठार

 

मध्य उच्चभूमि
नर्मदा नदी के उत्तर में प्रायद्वीपीय पठार का वह भाग ज़ों कि मालवा के पठार’ के अधिकतर भांगों पर फैला है उसे मध्य उच्चभूमि के नाम से जानी जाता है। विंध्य श्रृंखला दक्षिण में मध्य उच्चेभूमि तथा उत्तर-पश्चिम में अओरावली से घिरी है। पश्चिम में यह धीरे-धीरे राजस्थान के बलुई तथा पथरीले मरुस्थल से मिल जाता है।

इस क्षेत्र में बहने वाली नदियाँ, चंबल, सिंध, बैतवा‘ तथा  केन दक्षिण-पश्चिम – से उत्तर-पूर्व की तस्फ बहती हैं, इस प्रकार वे इस क्षेत्र: के ढाल॑ को दर्शाती हैं। मध्य उच्चभूमि पश्चिम में चौड़ी ‘ लेकिन पूर्व में संकीर्ण है। इस पठार के पूर्वी विस्तार को स्थानीय रूप से बुंदेलखंड तथा बघेलखंड के नाम से जाना जाता है। इसके ओर पूर्व के विस्तार को दामोदर नदी द्वारा अपवाहित छोटा नागपुर पठार दर्शाता है।

 

 

दक्कन का पठार

दक्षिण का पठार एक त्रिभुजाकार भूभाग है, जो नर्मदा नदी के दक्षिण में स्थित है। उत्तर में इसके चोडे आधार पर स॒तपुड़ा की श्रृंखला है, जबकि महादेव, कैमूर की पहाड़ी तथा मैकाल श्रृंखला इसके पूर्वी विस्तार हैं। भारत के भौतिक मानचित्र पर इन पहाड़ियों एवं श्रृंखलाओं की स्थिति को ज्ञात करें। दक्षिण का पठार पश्चिम में ऊँचा एवं पूर्व की ओर कम ढाल वाला है। इस पठार , का एक भाग उत्तर-पूर्व में भी देखा जाता है, जिसे स्थानीय रूप से “मेघालय ‘, “’कार्बी.एंगलोयं-पठार‘ तथा “उत्तर कचार पहाड़ी’ के नाम से जाना जाता है। यह एक /अँथ के द्वारा छोटा नागपुर पठार से अलग हो गया है। पश्चिम से पूर्व की ओर तीन महत्त्वपूर्ण श्रृंखलाएँ गारो, खासी तथा जयंतिया हैं।

 

 

पश्चिमी एवं पूर्वी घाट

 

 दक्षिण के पठार के पूर्वी एवं पश्चिमी सिरे पर क्रमश: पूर्वी तथा पश्चिमी घाट स्थित हैं। पश्चिमी घाट, पश्चिमी तट के समानांतर स्थित है। वे सतत्‌ हें तथा उन्हें केवल दरों के द्वारा ही पार किया जा सकता है।

पश्चिमी घाट, पूर्वी घाट की अपेक्षा ऊँचे हैं। पूर्वी घाट के. 600 मीटर की औसत ऊँचाई की तुलना में पश्चिमी घाट की ऊँचाई 900 से 1,600 मीटर है। पूर्वी घाट का विस्तार मह्मनदी घाटी से दक्षिण में नीलगिरी तकहै। पूर्वी घाट का विस्तार सतत्‌ नहीं है। ये अनियमित हैं एवं बंगाल की खाड़ी में गिरनें वाली नदियों ने इनको काट दिया है।

पश्चिमी घाट में पर्वतीय वर्षा होती है। यह वर्षा घाट के पश्चिमी ढाल पर आर्द्र हवा के टकराकर ऊपर उठने के कारण होती है। पश्चिमी घाट को विभिन्‍न स्थानीय नामों से जाना जाता है। पश्चिमी घाट की ऊँचाई, उत्तर से दक्षिण की ओर बढ़ती जाती हे। इस भाग के शिखर ऊँचे हैं, जेसे-अनाई मुडी (2,695 मी०) तथा डोडा बेटा (2,633 मी०)। पूर्वी घाट का सबसे ऊँचा शिखर महेंद्रगिरी (1,500 मी०) है। पूर्वी घाट के का शिचम में शेवराय तथा जावेडी की पहाडियाँ स्थित हैं। | जा आशक सर जिसे ऊटी के नाम से जाना जाता है तथा कोडईकनाल

 

प्रायद्वीपीय पठार की एक विशेषता यहाँ पायी जाने वाली काली मृदा है, जिसे ‘दक्कन ट्रेप’ के नाम से भी जाना जाता है। इसकी उत्पत्ति ज्वालामुखी से हुई है, इसलिए इसके शैल आग्नेय हैं

 

 

भारतीय मरुस्थल
अरावली पहाड़ी के पश्चिमी किनारे पर थार का मरुस्थल स्थित है। यह बालू के टिब्बों से ढँका एक तरंगित मैदान ‘ है। इस क्षेत्र में प्रति वर्ष 150 मि० से भी कम वर्षा होती है। इस शुष्क जलवायु बाले क्षेत्र में वनस्पति बहुत कम हेै। वर्षा ऋतु में ही कुछ सरिताएँ दिखती हैं और उसके बाद वे बालू में ही विलीन हो जाती हें। पर्याप्त जल नहीं मिलने से वे समुद्र तक नहीं पहुँच पाती हैं।

केवल ‘लूनी’ ही इस क्षेत्र की सबसे बड़ी नदी है।

 

 

तटीय मैदान ‘

प्रायद्वीमीय पठार के किनारों संकीर्ण . तटीय पट्टीयों का विस्तार है। यह पश्चिम में अरब सागर से लेकर पूर्व में बंगाल की खाड़ी तक विस्तृत है। पश्चिमी तट पश्चिमी ‘ घाट तथा अरब सागर के बीच स्थित एक र्सकीर्ण मैदान है। इस मैदान के तीन भाग हैं।

तट के उत्तरी भाग “कोंकण (मुंबई तथा गोवा), मध्य भाग को कनलड मैदान एवं दक्षिणी भाग को आलाबार तट कहा जाता है।…. बंगाल की खाड़ी के साथ विस्तृत मैदान चौड़ा एवं समतल हे। उत्तरी भाग में इसे “उत्तरी सरकार! कहा जाता है। जबकि दक्षिणी भाग कोरोमंडल‘ तट के नाम से जाना जाता, है। बड़ी नदियाँ, जैसे – महानदी, गोदावरी, कृष्णा तथा कावेरी इस तट पर विशाल डेल्टा का निर्माण करती है ।

 

 

द्वीप समूह

इसके अतिरिक्त भारत में दो द्वीपों का समूह भी स्थित है।

 

लक्षद्वीप द्वीप

केरल के मालाबार तट के पास स्थित लक्षद्वीप द्वीपों का यह समूह छोटे प्रवाल ‘छोट प्रवाल द्वीपों से बना है। पहले इनको लेकादीव, मीनीकाय तथा एमीनदीव के नाम से जाना जाता था। 1973 में इनका नाम लक्षद्वीप रखा गया। यह 32 वर्ग कि मी  क़े छोटे से क्षेत्र में फैला हैं। कावारत्ती द्वीप लक्षद्वीप का प्रशासनिक मुख्यालय है। इस द्वीप समूह पर पादप तथा जंतु के बहुत ‘से प्रकार पाए जाते हैं। पिटली द्वीप, जहाँ मनुष्य का निवास नहीं है, वहाँ एक पक्षी-अभयारण्य हे।

 

अंडमान, एवं निकोबार द्वीप
बंगाल की खाड़ी उत्तर से दक्षिण के तरफ फैले द्वीपों की श्रृंखला ये अंडमान , एवं निकोबार द्वीप हैं। यह द्वीप समूह आकार में बड़े संख्या में बहुल तथा बिखरे हुए हैं।

 

यह द्वीप समूह मुख्यतः दो भागों में बाँटा है 

उत्तर में अंडमान तथा दक्षिण में निकोबार। यह माना जाता है कि यह द्वीप समूह निर्माज्जत पर्वत श्रेणियों के शिखर हैं। यह द्वीप समूह देश की सुरक्षा के लिए. बहुत महत्त्वपूर्ण है। इन द्वीप समूहों में पाए जाने वाले पादप एवं जंतुओं में बहुत अधिक विविधता है। ये द्वीप विषवत्‌ वृत के समीप स्थित हैं एवं यहाँ की जलबायु विषुवतीय है तथा यह घने जंगलों से आच्छादित है।

 

 

 

अध्याय 3 – अपवाह 

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