पियाजे , कोहल्बर्ग एवं वाइगोत्सकी के सिद्धांत

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❍ डॉ. जीन पियाजे :- स्विट्जरलैंड ( 1869-1980) यह एक स्विस मनोवैज्ञानिक थे , जिन्होंने मानव विकास के समस्त पहलुओं को क्रमबद्ध तरीके से उजागर किया जिसे हम जीन पियाजे का संज्ञानात्मक विकास का सिद्धांत कहते हैं।

❍c:- जीन पियाजे के अनुसार बालक का बौद्धिक विकास क्रमबद्ध तरीके से होता है जैसे बच्चा भूख लगने पर रोता है , अर्थात वह अपने भावात्मक पहलुओं को विभिन्न क्रियाओं जरिये व्यक्त करता है , वह अपने भावात्मक पहलुओं को अपनी इंद्रियों ( आँख , कान , नाक , जीभ , हाथ आदि ) के माध्यम से प्रकट करता है जिससे उसके संज्ञानात्मक विकास में वृद्धि होती हैं।

 

 

○ अनुकरण :- अपने माता-पिता का अनुकरण ( नकल ) करके सीखता है।

○ अनुकूलन :- समाज मे आकर दुनिया के बारे में समझ विकसित करता है।

○ आत्मसातीकरण :- पूर्व ज्ञान के साथ नवीन ज्ञान को जोड़ने की प्रक्रिया…

 

❍ पियाजे ने संज्ञानात्मक विकास के चार अवस्थायें :-

○ संवेदीगामक :- ( जन्म से 2 वर्ष )

○ मानसिक क्रियाएँ , इन्द्रियजनित गामक क्रियाओं के रूप में ही संपन्न होती हैं।

○ भूख लगने की स्थिति को बालक रोकर व्यक्त करता है।

○ जिन वस्तुओं को वे प्रत्यक्षत: देखते हैं, उनके लिए उसी का अस्तित्व होता है।

○ इस तरह यह अवस्था अनुकरण , स्मृति और मानसिक निरूपण से सम्बंधित है।

 

❍ पूर्व संक्रियात्मक अवस्था :- ( 2 से 7 वर्ष तक )

○ इस अवस्था में बालक अपने परिवेश की वस्तुओं को पहचानने एवं उसमें विभेद करने लगता है।

○ इस दौरान उसमें भाषा का विकास भी प्रारम्भ हो जाता है।

○शिशु, गिनती गिनना रंगों को पहचानना वस्तुओं को क्रम से रखना हल्के भारी का ज्ञान होना।

○ इस अवस्था में बालक नई सूचनाओं का संग्रह करता है।

○ बच्चों में वस्तु स्थायित्व के गुणों का विकास होता है।

○ माता पिता की आज्ञा मानना, पूछने पर नाम बताना घर के छोटे छोटे कार्यों में मदद करना आदि सीख जाता है।

 

❍ मूर्त संक्रियात्मक अवस्था :- ( 7 से 11 वर्ष )

○ बालक अपने पर्यावरण के साथ अनुकूलन करने के लिए अनेक नियमों को सिख लेता है।

○ इस अवस्था में बालक विश्वास करने लगता है तथा लम्बाई , भार , अंक आदि प्रत्ययों चिंतन करता है।

○ भाषा एवं संप्रेषण योग्यता का विकास की अवस्था में हो जाता है

○इस अवस्था में बालक में वस्तुओं को पहचानने , उनका विभेदीकरण करने तथा वर्गीकरण करने की क्षमता विकसित हो जाती है।

 

 

 ❍ अमूर्त संक्रियात्मक अवस्था :- ( 11 वर्ष से आगे )

○ यह अवस्था ग्यारह वर्ष से प्रौढ़ावस्था तक की अवस्था है।

○ बालक में अच्छी तरह से सोचने , समस्या-समाधान करने एवं निर्णय लेने की क्षमता का विकास हो जाता है।

○ इस अवस्था में मानसिक योग्यताओं का पूर्ण विकास हो जाता है।

○ इस अवस्था में विभिन्न प्रकार की समस्याओं के समाधान के लिए अमूर्त नियमों कर सकता है।

 

❍ जीन पियाजे के संज्ञानात्मक विकास के सिद्धांत का शैक्षिक महत्व :-

○ बालकों के अधिगम के लिए उचित वातावरण तैयार करना चाहिए।

○ शिक्षकों को बच्चों में तार्किक क्षमता बढ़ाने का प्रयास करना चाहिए।

○ बच्चों को गलती करने एवं उसे स्वयं सुधारने का पर्याप्त अवसर चाहिए।

○ शिक्षकों को प्रयोगात्मक शिक्षा एवं व्यवहारिक शिक्षा पर बल देना चाहिए।

○ पियाजे के अनुसार संज्ञानात्मक या मानसिक विकास निरन्तर चलने वाली प्रक्रिया है।

○ शिक्षक को बालक की समस्या का निदान करना चाहिए। बाल केंद्रित शिक्षा पर बल दिया।

○ अध्यापकों को पहले बालकों के मानसिक विकास की अवस्था का निर्धारण कर , तब उसे शिक्षित करने हेतु योजना बनानी चाहिए।

○ शिक्षक को वाद-विवाद प्रतियोगिता का आयोजन करते रहते रहना चाहिए यह प्रतियोगिता नवीन सोच एवं नवीन विचारों को जन्म देती है।

 

 

❍ जीन पियाजे के अन्य सिद्धात

❍ निर्माण और खोज का सिद्धांत :-

○ प्रत्येक बालक अपने अनुभवों को अर्थपूर्ण बनाने के लिए क्रियाशील होता है।

○ पियाजे का विचार है कि ज्ञानात्मक विकास केवल नकल न होकर खोज पर आधारित है।

 

❍ कार्य-क्रिया का अर्जन :-

○ प्रत्येक कार्यात्मक-क्रिया का एक तर्कपूर्ण विपरीत प्रभाव होता है।

उदाहरण के लिए :- एक मिट्टी के चक्र को दो भागों में तोड़ना तथा दो टूटे हुए भागों को पुनः एक पूर्ण चक्र के रूप में जोड़ना एक कार्यात्मक-क्रिया है।

○ बौद्धिक वृद्धि का केन्द्र इन्हीं कार्यात्मक-क्रिया का अर्जन है।

○ एक विकास अवस्था से दूसरी में पदार्पण ( प्रारम्भ ) के लिए दो तथ्य आवश्यक हैं- सात्मीकरण एवं सन्तुलन स्थापित करना।

○ सात्मीकरण का अर्थ बालक में उपस्थित एक विचार में किसी नए विचार या वस्तु का समावेश हो जाना।

 

❍ जीन पियाजे का नैतिक विकास का सिद्धांत :-

पियाजे के अनुसार नैतिक अवस्थाएँ दो प्रकार की होती हैं

 ○ परायत्त नैतिकता की अवस्था :- ( 2 से 8 वर्ष की ) पियाजे के अनुरूप इस अवस्था का उद्भव बालकों में असमान अन्त:क्रिया से होती है। इस काल में बच्चों में नैतिक नियम निरपेक्ष , अपरिवर्तनीय प्रवृत्ति के होते है।

○ स्वायत नैतिकता की अवस्था :- ( 9 से 11 वर्ष ) इस काल में नैतिकता बच्चों के समकक्ष अर्थात मित्रों के बीच के सम्बन्धो से विकसित होती है। बच्चों में सोचने की प्रवृत्ति होती है नियम एवं कानून लोगों द्वारा निर्मित किए गए है।

 

❍ लॉरेंस कोल्हबर्ग का नैतिक विकास की अवस्था का सिद्धांत :-

लॉरेंस कोल्हबर्ग ( 25 अक्टूबर, 1927 – 19 जनवरी, 1987) एक अमेरिकी मनोवैज्ञानिक थे इन्हें नैतिक विकास के चरणों के अपने सिद्धांत के लिए जाना जाता है। उन्होंने शिकागो विश्वविद्यालय में मनोविज्ञान विभाग में और हार्वर्ड विश्वविद्यालय में शिक्षा के ग्रेजुएट स्कूल में प्रोफेसर के रूप में कार्य किया।

हार्वर्ड विश्वविद्यालय के प्रोफेसर लॉरेंस कोहलबर्ग ने 1970 में नैतिक विकास ( theory of moral development) सिद्धांत का विकास किया। यह सिद्धांत पियाजे और जॉन डेवी के विचारों पर आधारित था। उन्होंने नैतिक विकास सिद्धांत को तीन अवस्थाओं में बांटा है।

○ नैतिक व्यवहार जन्मजात नहीं होता है, बल्कि इसे सामाजिक परिवेश से सीखा या अर्जित किया जाता है।

 

❍ पूर्व परम्परागत स्तर या पूर्व नैतिक स्तर :- ( 4 से 10 वर्ष )

इस आयु में बालक अपनी आवश्यकताओं के सम्बन्ध में सोचते हैं। नैतिक दुविधाओं से सम्बन्धित प्रश्न उनके लाभ या हानि पर आधारित होते हैं। नैतिक कार्य का सम्बन्ध सामाजिक एवं सांस्कृतिक रूप से क्या सही है एवं क्या गलत है इससे सम्बन्धित होता है।

 1. दण्ड तथा आज्ञापालन अभिमुखता :- बालकों के मन में आज्ञापालन का भाव दण्ड पर आधारित होता है , इस अवस्था में बालकों में नैतिकता का ज्ञान होता हैं।

 2. आत्मा अभिरुचि तथा प्रतिफल अभिमुखता :- इस अवस्था में बालक अपनी रुचि को प्राथमिकता देता है। वह पुरस्कार पाने के लिए नियमों का अनुपालन करता है।

 

❍ परम्परागत नैतिक स्तर :- ( 10 से 13 वर्ष ) कोई बालक दूसरे व्यक्ति के नैतिक मानकों को अपने व्यवहार में समाहित करता है। तथा उस मानक के सही एवं गलत पक्ष चिंतन के माध्यम से निर्णय करता है , तथा उस पर अपनी सहमति बनाता है।

1. अधिकार संरक्षण अभिमुखता :- इस अवस्था में बच्चे नियम एवं व्यवस्था के प्रति जागरूक होते हैं तथा वे नियम एवं व्यवस्था के अनुपालन के प्रति जवाबदेह होते है।

2.अच्छा लड़का या अच्छी लड़की :- इस अवस्था में बच्चे में एक-दूसरे का सम्मान करने की भावना होती है तथा दूसरों से भी पाने की इच्छा रखते हैं।

 

❍ उत्तर परम्परागत नैतिक स्तर या आत्मा अंगीकृत नैतिक मूल्य :– ( 13 से ऊपर )
कोहल्बर्ग के मतानुसार नैतिक विकास के परम्परागत स्तर पर नैतिक मूल्य या चारित्रिक मूल्य का सम्बन्ध अच्छे या बुरे कार्य के संदर्भ में निहित होता है। बालक अपने परिवार , समाज एवं राष्ट्र के महत्व को प्राथमिकता देते हुए एक स्वीकृत व्यवस्था के अन्तर्गत कार्य करता है।

 

1. सामाजिक अनुबन्ध अभिमुखता :- इस अवस्था में बच्चे वही करते हैं जो उन्हें सही लगता है।
उदाहरणस्वरूप :- यदि एक व्यक्ति अपने बच्चें को जान बचाने के लिए दवा को चोरी करता है, तो यहाँ देखा जाएगा कि जीवन बचाना यहाँ महत्वपूर्ण है।

 

2.सार्वभौमिक नैतिक सिद्धांत अभिमुखता :- इस अवस्था में अन्त:करण की ओर अग्रसर हो जाती हैं। यहाँ बच्चे के अनुरूप व्यहवार करना है।

 

❍ कोह्लबर्ग का नैतिक विकास का सिद्धांत की अन्य अवस्थाएँ :- कोह्लबर्ग ने नैतिक विकास की अवस्था के कुछ अन्य सिद्धांत दिए गए है, जो निम्न प्रकार हैं

○ स्वकेन्द्रित अवस्था :- ( 3 से 6 वर्ष तक ) इस अवस्था के बालक की सभी व्यवहारिक क्रियाएँ अपनी वैयकितक आवश्यकताओं और इच्छाओं की पूर्ति के चारों ओर केन्द्रित रहती हैं। बालक के लिए वही नैतिक होता है , जो उसके स्व अर्थात आत्मा-कल्याण से जुड़ा होता है।

○ परम्पराओं को धारण करने वाली अवस्था :– ( सातवें वर्ष से लेकर किशोरावस्था तक ) इस अवस्था में बालक समाज के बनाए नियमों , परम्पराओं तथा मूल्यों को धारण करने सम्बन्धी नैतिकता का विकास होता हुआ देखा जा सकता है।

○ इस अवस्था में उसे अच्छाई-बुराई का ज्ञान हो जाता है ।

❍ आधारहीन आत्मचेतना अवस्था :- ( यह अवस्था किशोरावस्था से जुड़ी हुई है )

○ इस अवस्था में बालकों का सामाजिक , शारीरिक तथा मानसिक विकास अपनी ऊँचाइयों को छूने लगता है और उसमें आत्मचेतना का शुरुआत हो जाती है।

○ यह मेरा आचरण है , मैं ऐसे व्यहवार करता हूँ, इसकी उसे अनुभूति होने लगती है।

 

❍ आधारयुक्त आत्मचेतना अवस्था :- ( नैतिक विकास की चरम अवस्था है )

○ जिस प्रकार के नैतिक आचरण और चारित्रिक मूल्यों की बात बालक विशेष में कई जाती है उसके पीछे केवल उसकी भावनाओं का प्रवाह मात्र ही नही होता , बल्कि वह अपने मानसिक शक्तियों का उचित प्रयोग करता है।

 

❍ वाइगोत्सकी का सामाजिक विकास का सिद्धांत :-

लिव वाइगोत्सकी ( 1896-1934 ) एक रूसी मनोवैज्ञानिक थे। वाइगोत्सकी के अनुसार संज्ञानात्मक विकास पर सामाजिक कारकों ( परिवार , समाज , विद्यालय , मित्र मंडली परिवेश ) व भाषा का प्रभाव पड़ता है।

❍ सामाजिक विकास के सिद्धांत :-

❍ अंतरीकरण का सिद्धांत या व्यक्तिगत भाषा (Internalisation Theory & Individual Language) –
वाइगोत्स्की का मानना था कि विकास वातावरण में शुरू होता है, विशेषकर सामाजिक वातावरण में। इसमें इंसान बाहर होने वाले अवलोकन को अपने भीतर आत्मसात करके सीखता है। इसमें बालक अपने व्यवहार को नियंत्रित और निर्देशित करने के लिए स्वयं से बातचीत करता है। वाइगोत्स्की के अनुसार, भाषा समाज द्वारा दिया गया प्रमुख सांकेतिक उपकरण है, जो बालक के विकास में विशेष रूप से महत्त्वपूर्ण है। बोला कैसे जाता है? यह अंतरीकरण का एक अच्छा उदाहरण है।

उदाहरण के तौर पर, छोटे बच्चे कक्षा में अपने शिक्षक की तरह कुर्सी पर बैठकर अन्य बच्चों को चुपचाप बैठकर पढ़ने और आपस में बात न करने के निर्देश देने का अभिनय करते हैं और उसी तरह व्यवहार करना सीखते हैं।

हिंदी भाषी क्षेत्र में बच्चे देखते हैं कि माता-पिता किस तरह विभिन्न ध्वनियों का उच्चारण करते हैं। बच्चे इन ध्वनियों को सीख लेते हैं और धीरे-धीरे बच्चे अपने माता-पिता की तरह हिंदी बोलना शुरू कर देते हैं। इस तरह बच्चे अपने माता-पिता की भाषा को आत्मसात कर लेते हैं।

अतः बाहर (वातावरण) सेे अंदर की ओर (बच्चे के आतंरिक स्व) की दिशा में होने वाले विकास को वाइगोत्स्की ने अंतरीकरण नाम दिया है।

❍ निकटतम विकास का क्षेत्र (Zone of Proximal Development or ZPD)-
समीपस्थ विकास का क्षेत्र ((ZPD) क्या है ?

वाइगोत्स्की ने शिक्षक के रूप में अनुभव के दौरान यह जाना है कि बालक अपने वास्तविक विकास स्तर से आगे जाकर समस्याओं का समाधान कर सकते हैं, यदि उन्हें थोङा निर्देश मिल जाए। इस स्तर को वाइगोत्स्की ने संभावित विकास माना है।

आसान भाषा में यह समझें कि बालक के वास्तविक विकास स्तर और संभावित विकास स्तर के बीच के अंतर/क्षेत्र को वाइगोत्स्की ने निकटतम विकास का क्षेत्र (ZPD) कहा है।

वाइगोत्स्की कहते हैं कि बालक के स्वयं से समस्या समाधान की क्षमता द्वारा होने वाले वास्तविक विकास के स्तर और किसी बङे व्यक्ति के निर्देशन में होने वाले विकास के बीच का अंतर ही संभावित विकास के क्षेत्र को निर्धारित करता है।

यह संप्रत्यय दोस्तों के सहयोग से सीखने (Peer Learning) को बङों के निर्देशन में सीखने जितना ही महत्त्वपूर्ण मानता है। बच्चों को इस क्षेत्र में रहने का अवसर मिलने पर उनके व्यक्तिगत अधिगम स्तर में वृद्धि के साथ ही सीखने को लेकर अधिक प्रोत्साहन मिलेगा।

 

सामाजिक विकास सिद्धांत की विशेषताएँ (Features of of Cognitive Development Theory)

(1) वाइगोत्स्की के अनुसार, बच्चे ज्ञान का सृजन करते हैं।

(2) संज्ञानात्मक विकास में सामाजिक कारक का बहुत महत्त्व है।

(3) बच्चे की भाषा, दक्षताएं व अनुभव आदि व्यक्ति की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि से प्रभावित होते हैं।

(4) सीखना विकास की ओर निर्देशित कर सकता है। सामाजिक वातावरण सीखने में सहायता करता है ।

(5)वाइगोत्स्की के अनुसार, सीखने में शिक्षक के अलावा सामाजिक व सांस्कृतिक वातावरण का महत्त्वपूर्ण स्थान है।

(6)संस्कृति संज्ञानात्मक विकास को दिशा देती है। ज्ञान भी सामाजिक संदर्भ में होता है। विकास को सामाजिक संदर्भ से अलग नहीं किया जा सकता है।

(7) वाइगोत्स्की ने संज्ञानात्मक विकास के लिए भाषा पर बल दिया है। तर्क करना, चिंतन करना आदि सभी सांस्कृतिक कारकों को मदद करते हैं।

 

 

 

❍ सामाजिक विकास का सिध्दांत :-

1. संज्ञानात्मक विकास :- संज्ञानात्मक विकास में वाइगोत्सकी ने सामाजिक प्रभावों की महत्वपूर्ण भूमिका को स्वीकार किया है। तथा इसके अधिगम प्रभावों के संदर्भ में सूचना प्रभाव एवं व्यापक प्रभाव का विश्लेषण किया है।

2. अंत:क्रिया :- अंत:क्रिया के माध्यम से छात्र में स्वतः प्रेरणा उत्पन्न होती है , जो कि उसको सीखने में सहायता प्रदान करती है।

3. ZPD की अवधारणा :- जो कुछ हम जानते है और जो कुछ हम नही जानते उसके बीच में एक रिक्त स्थान होता है। यह रिक्त स्थान ही विकास एवं ज्ञान का आधार होता है।

4. संस्कृति का अधिगम पक्ष :- संस्कृति विशिष्ट व्यवहार परिवर्तन एवं मानसिक कार्य में परिवर्तन को प्रदर्शित करती हैं।

5. अधिगम स्तर में भिन्नता :- प्रायः छात्रों को समान परिस्थितियों में स्वतंत्र रूप से रखने पर उनके अधिगम स्तर भिन्नता पाई जाती है।

 

 

 

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