☆मृदा एवं जलवायु:-
• धरातल की वह ऊपरी परत जो पेड़-पौधों के उगने तथा बढ़ने में तत्त्वों को महत्त्वपूर्ण सम्मिश्रण प्रदान करती है तथा शैलों के विघटन एवं नियोजन से उत्पन्न टीले एवं असंगठित भू-पदार्थों को मृदा या मिट्टी कहते हैं।
• मध्य प्रदेश राज्य देश के दक्षिणी प्रायद्वीपीय पठार का वह भू-भाग है, जहाँ पर विस्तृत भू-भाग में अवशिष्ट मृदा पाई जाती है।
• मध्य प्रदेश प्राचीन भू-खण्ड का भाग है एवं चट्टानों द्वारा बना है, इसलिए मृदा भी इन्हीं चट्टानों से मिलकर बनी है, यही कारण है। कि नदी कछारों के अतिरिक्त लगभग सम्पूर्ण राज्य में प्रौढ़ मृदा पाई जाती है।
☆ मध्य प्रदेश की प्रमुख मृदाएँ :-
मध्य प्रदेश में निम्नलिखित पाँच प्रकार की मृदाएं पाई जाती हैं।
1. काली मृदा (रेगड़ की मृदा)
• काली मृदा मध्य प्रदेश में सर्वाधिक (47%) पाई जाने वाली मृदा है। यह गहरे रंग की दोमट मृदा होती है। इसके दो प्रधान अवयव चीका एवं बालू हैं।
• काली मृदा में मुख्य रूप से लोहा चूना की प्रधानता होती है। इसमें फॉस्फोरस, नाइट्रोजन तथा जैव तत्त्वों की कमी होती है।
• इस मृदा का निर्माण ज्वालामुखी के चट्टानों वाले लावा के जमने से होता है। यह मृदा क्षारीय प्रकृति की होती है, जिसका pH मान 7.5 से 8.5 होता है।
• बेसाल्ट नामक आग्नेय चट्टान से निर्मित लावा के रासायनिक परिवर्तन के कारण इसका रंग काला हो जाता है।
• इस मृदा को रेगुर मृदा भी कहा जाता है। स्थानीय भाषा में काली मृदा को भर्री या कन्हर कहा जाता है। यह पानी डालने पर चिपचिपी हो जाती है तथा सूखने पर इसमें दरारें पड़ जाती हैं।
• भारत में काली मृदा की अधिकता महाराष्ट्र क्षेत्र में पाई जाती है, इसके बाद दूसरे क्रम में मध्य प्रदेश के क्षेत्र आते हैं।
• कपास, गेहूँ एवं सोयाबीन के लिए काली मृदा उपयुक्त मानी जाती है।
• मध्य प्रदेश में काली मृदा दक्षिणी बुन्देलखण्ड, मालवा पठार, मैकाल श्रेणी, सतपुड़ा के कुछ भाग तथा नर्मदा-सोन घाटी में मिलती है।
• मध्य प्रदेश में मन्दसौर, रतलाम, झाबुआ, धार, खण्डवा, खरगौन, इन्दौर, देवास, सीहोर, उज्जैन, शाजापुर, राजगढ़, भोपाल, रायसेन, विदिशा, सागर, दमोह, जबलपुर, नरसिंहपुर, होशंगाबाद, बैतूल, छिन्दवाड़ा, सिवनी, गुना, शिवपुरी इत्यादि जिलों में काली मृदा की अधिकता पाई जाती है।
काली मृदा को तीन भागों में बांटा गया है
(i) गहरी काली मृदा
• यह मृदा नर्मदा तथा सोन घाटी, मालवा एवं सतपुड़ा पठार के विस्तृत भागों में पाई जाती है। इस मृदा का भूमि विस्तार 1.4 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में पाया जाता है।
• यह मृदा काली मृदा के कुल क्षेत्र के 3.5% भागों में पाई जाती है। यह मृदा गेहूँ, तिलहन, ज्वार एवं चने की खेती के लिए उपयुक्त होती है। गहरी काली मृदा 20% से 60% तक चिकनी होती है।
(iii) साधारण गहरी काली मृदा
• यह मृदा प्रदेश के मालवा पठार, उत्तरी राज्य तथा निमाड़ क्षेत्र में लगभग 400 लाख एकड़ क्षेत्र में मिलती है। यह राज्य में सबसे अधिक क्षेत्रफल पर पाई जाने वाली मृदा है।
• यह मृदा काली मृदा के कुल क्षेत्र के 37% भू-भाग पर पाई जाती है। इस मृदा का रंग भूरा अथवा हल्का काला होता है।
• इस प्रकार की मृदा में सिंचाई की अत्यधिक आवश्यकता नहीं होती है।
(iii) छिछली काली मृदा
• यह मृदा मुख्य रूप से छिन्दवाड़ा, सिवनी, सीधी तथा बैतूल जिलों में पाई जाती है।
• राज्य में इसका क्षेत्रफल लगभग 67 लाख एकड़ है, जो राज्य के कुल मृदा में इस मृदा की मात्रा 7.1% तक पाई जाती है।
• यह मृदा गेहूँ एवं चावल की कृषि के लिए उपयोगी है।
• छिछली काली मृदा चिकनी दोमट है, जिसमें 15 से 30% चिकनी मात्रा पाई जाती है।
• इसका pH मान 7.5 से 8.5 तक होता है।
2. लाल-पीली मृदा
• यह मध्य प्रदेश में दूसरी सर्वाधिक (37%) पाई जाने वाली मृदा है। लाल-पीली मृदा का निर्माण आर्कियन, धारवाड़ तथा गोण्डवाना चट्टानों के अपरदन से हुआ है।
• यह मृदा अधिकांशतः हल्की बलुई होती है, किन्तु कहीं-कहीं पर यह मृदा चिकनी एवं दोमट रूप में पाई जाती है।
• इस मृदा में लोहे के ऑक्सीकरण के कारण लाल रंग तथा फेरिक आक्साइड के जलयोजन के कारण यह मृदा पीली रंग में पाई जाती है।
• इस मृदा में उर्वरता की मात्रा कम पाई जाती है, क्योंकि इसमें उर्वरता हेतु आवश्यक ह्यूमस एवं नाइट्रोजन तत्त्व कम मात्रा में पाए जाते हैं।
• इस मृदा का pH मान 5.5 से 8.5 तक होता है। चूने की मात्रा अत्यधिक होने पर यह मृदा कम उर्वर होती है।
• राज्य में यह मृदा मुख्य रूप से मण्डला, बालाघाट, शहडोल तथा सीधी आदि जिलों में पाई जाती है। बघेलखण्ड के लाल-पीली मृदा वाले क्षेत्रों में चावल की कृषि की जाती है।
• इस प्रकार की मृदा वाले अधिकांश क्षेत्र छत्तीसगढ़ के अन्तर्गत आते हैं।
3. जलोढ़ मृदा (काप मृदा)
• मध्य प्रदेश में जलोढ़ मृदा का निर्माण चम्बल नदी के निक्षेपों और बुन्देलखण्ड की नीस चट्टानों के अपरदन से होता है।
• इसका मुख्य घटक कार्बोनेट है। यह मृदा राज्य के कुल क्षेत्र के 3% भू-भाग पर पाई जाती है।
• यह मृदा प्रदेश के मुरैना, भिण्ड, ग्वालियर, श्योपुर तथा शिवपुरी जिलों में लगभग 30 लाख एकड़ क्षेत्रफल में विस्तृत है।
• इस मृदा में नाइट्रोजन, जैव तत्त्व तथा फॉस्फोरस की कमी होती है।
• इस मृदा का pH मान 7 से अधिक होता है। बालू की अधिकता के कारण इस मृदा का अपरदन सबसे अधिक होता है।
• जलोढ़ मृदा की उर्वरता अधिक होने के कारण इस मृदा में गेहूँ, कपास, गन्ना इत्यादि फसलें उगाई जाती हैं। यह मृदा सर्वाधिक उपजाऊ मृदा होती है।
4. मिश्रित मृदा
• यह मृदा प्रदेश के अनेक भागों में लाल, पीली तथा काली मृदा के मिश्रित रूप में पाई जाती है।
• यह मृदा बुन्देलखण्ड क्षेत्रों, टीकमगढ़, पन्ना, रीवा, सतना तथा सीधी आदि जिलों में प्रमुख रूप से पाई जाती है।
• यह मृदा फॉस्फेट, नाइट्रोजन एवं कार्बनिक पदार्थों की कमी के कारण कम उपजाऊ है। इस मृदा में मुख्य रूप से ज्वार, बाजरा जैसे मोटे अनाजों की खेती की जाती है।
5. कछारी मृदा
• कछारी मृदा का निर्माण नदियों द्वारा बाढ़ के समय अपवाह क्षेत्र में निक्षेपित पदार्थों से हुआ है।
• इसका विस्तार श्योपुर, भिण्ड, मुरैना तथा ग्वालियर आदि जिलों में है। यह मृदा गेहूं, गन्ना, तिलहन तथा कपास के लिए उपयुक्त होती है।
《 राज्य में मृदा अपरदन 》
अपरदन के विभिन्न कारकों द्वारा मृदा की सतह से मृदा के महीन कणों का कट-कटकर बहना मृदा अपरदन कहलाता है। चम्बल तथा नर्मदा घाटी में मृदा अपरदन की समस्या है। चम्बल घाटी अपरदन की समस्या देश के लिए एक गम्भीर समस्या है।
मृदा के अपक्षरण को “रेंगती हुई मृत्यु” कहते हैं। मृदा अपरदन से श्योपुर, भिण्ड एवं मुरैना जिले सर्वाधिक प्रभावित हैं। मृदा अपरदन की इस समस्या के निवारण के लिए राज्य का कृषि विभाग, विश्व बैंक के साथ मिलकर अनेक प्रयास कर रहा है।
राज्य में मृदा अपरदन रोकने के लिए पशु चराई पर नियन्त्रण, कण्टूर की खेती एवं वृक्षारोपण को बढ़ावा दिया जा रहा है तथा छोटे-छोटे बाँधों का निर्माण एवं भूमि का चक्रीय पद्धति के अनुसार उपयोग किया जा रहा है।
Sir class 9-10 k notes ncert k provide krwa dijiye