जल
जैसा कि आप जानते हैं कि तीन-चौथाई धरातल जल से ढका हुआ है, परंतु इसमें प्रयोग में लाने योग्य अलवणीय जल का अनुपात बहुत कम है। यह अलवणीय जल हमें सतही अपवाह और भौमजल स्रोत से प्राप्त हाता है, जिनका लगातार नवीकरण और पुनर्भरण जलीय चक्र द्वारा होता रहता है। सारा जल जलीय चक्र में गतिशील रहता है जिससे जल नवीकरण सुनिश्चित होता है।
जल एक नवीकरण योग्य संसाधन है तब भी विश्व के अनेक देशों और क्षेत्रों में जल की कमी कैसे है? ऐसी भविष्यवाणी क्यों की जा रही है कि 2025 में 20 करोड़ लोग जल की नितांत कमी झेलेंगे?
वर्षा और वार्षिक और मौसमी परिवर्तन के कारण जल संसाधनों की उपलब्धता में समय और स्थान के अनुसार विभिन्नता है। परंतु अधिकतर जल की कमी इसके अति शोषण ,अत्यधिक प्रयोग और समाज के विभिन्न वर्गों में जल के असमान वितरण के कारण होती है
जल दुर्लभता
जल दुर्लभता अत्याधिक और बढ़ती जनसंख्या और इसके परिणाम स्वरूप जल की बढ़ती मांग और इस के असमान वितरण का परिणाम हो सकती है। जल अधिक जनसंख्या के लिए घरेलू उपयोग में ही नहीं बल्कि अधिक अनाज उगाने के लिए भी चाहिए।अतः अनाज का उत्पादन बढ़ाने के लिए जल संसाधनों का अति शोषण करके ही संचित क्षेत्र बढ़ाया जा सकता है और उसके ऋतु में भी खेती की जा सकती है
स्वतंत्रता के बाद भारत में तेजी से औद्योगीकरण और शहरीकरण हुआ और विकास के अवसर प्राप्त हुए। आजकल हर जगह बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ (MNCs) बड़े औद्योगिक घरानों के रूप में फैली हुई हैं। उद्योगों की बढ़ती हुई संख्या के कारण अलवणीय जल संसाधनों पर दबाव बढ़ रहा है।
उद्योगों को अत्यधिक जल के अलावा उनको चलाने के लिए ऊर्जा की भी आवश्यकता होती है और इसकी काफी हद तक पूर्ति जल विद्युत से होती है। वर्तमान समय में भारत में कुल विद्युत का लगभग 22 प्रतिशत भाग जल विद्युत से प्राप्त होता है। इसके अलावा शहरों की बढ़ती संख्या और जनसंख्या तथा शहरी जीवन शैली के कारण न केवल जल और ऊर्जा की आवश्यकता में बढ़ोतरी है अपितु इनसे संबंधित समस्याएँ और भी गहरी हुई हैं।
ऐसी स्थिति संभव है जहां पर जल अधिक मात्रा में है परंतु फिर भी जल की कमी है। इसका मुख्य कारण हो सकता है घरेलू और औद्योगिक अपशिष्टों, रसायनों, कीटनाशकों और कृषि में प्रयुक्त उर्वरक द्वारा जल का प्रदूषण जो मानव उपयोग के लिए खतरनाक है।
समय की मांग है कि हम अपने जल संसाधनों का संरक्षण और प्रबंधन करें स्वयं को स्वस्थ संबंधी खतरों से बचाएं खाद्यान्न सुरक्षा अपनी आजीविका और उत्पादन क्रियाओं की निरंतरता को सुनिश्चित करें और हमें प्राकृतिक पारितंत्र को निम्नीकृत होने से बचाएं।
जल जीवन मिशन
भारत सरकार ने जल जीवन मिशन (जे.जे. एम. ) की घोषणा करके ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले लोगों के जीवन की गुणवत्ता में सुधार लाने और विशेष रूप से जीवनयापन को आसान बनाने को सर्वोच्च प्राथमिकता दी है। जल जीवन मिशन का लक्ष्य प्रत्येक ग्रामीण परिवार को लंबी अवधि के आधार पर नियमित रूप से प्रति व्यक्ति 55 लीटर के सेवा स्तर पर पीने योग्य पाइप के पानी की आपूर्ति सुनिश्चित करने में सक्षम बनाना है।
बहुउद्देशीय नदी परियोजनाएं और समन्वित जल संसाधन
हम जल का संरक्षण और प्रबंधन किस प्रकार कर सकते हैं ?
प्राचीन काल में जल संरक्षण के लिए सिंचाई के लिए पत्थरों और मलबे से बांध जलाशय तालाब नहरो का निर्माण किया जाता था।
प्राचीन भारत में जलीय कृतियाँ
ईसा से एक शताब्दी पहले इलाहाबाद के नजदीक श्रिगंवेरा में गंगा नदी की बाढ़ के जल को संरक्षित करने के लिए एक उत्कृष्ट जल संग्रहण तंत्र बनाया गया था।
• चन्द्रगुप्त मौर्य के समय बृहत् स्तर पर बाँध, झील और सिंचाई तंत्रों का निर्माण करवाया गया।
• कलिंग (ओडिशा), नागार्जुनकोंडा (आंध्र प्रदेश) बेन्नूर (कर्नाटक) और कोल्हापुर (महाराष्ट्र) में उत्कृष्ट सिंचाई तंत्र होने के सबूत मिलते हैं।
• अपने समय की सबसे बड़ी कृत्रिम झीलों में से एक,
भोपाल झील, 11 वीं शताब्दी में बनाई गई।
14वीं शताब्दी में इल्तुतमिश ने दिल्ली में सिरी फोर्ट क्षेत्र में जल की सप्लाई के लिए हौज खास ( एक विशिष्ट तालाब) बनवाया।
बांध निर्माण द्वारा जल संरक्षण
परंपरागत बांध, नदियों और वर्षा जल को इकट्ठा करके बाद में उसे खेती की सिंचाई के लिए उपलब्ध करवादेते थे। आज कल बांध सिर्फ सिंचाई के लिए नहीं अपितु इसका उद्देश्य विद्युत उत्पादन, घरेलू और औद्योगिक उपयोग, जलापूर्ति, बाढ़ नियंत्रण, मनोरंजन और मछली पालन में भी होता है। इसलिए बांध को बहुउद्देशीय परियोजना कहा जाता है।
उदाहरण के तौर पर सतलुज ब्यास बेसिन में भाखड़ा नांगल परियोजना जल विद्युत उत्पादन और सिंचाई दोनों के काम में आता है। इसी प्रकार महानदी बेसिन में हीराकुंड परियोजना जल संरक्षण और बाढ़ नियंत्रण का समन्वय है।
बहुउद्देशीय परियोजनाएं और बड़े बांध नए पर्यावरणीय आंदोलनों जैसे “नर्मदा बचाओ आंदोलन” और “टिहरी बांध आंदोलन” के कारण भी बन गए हैं। इन परियोजनाओं का विरोध मुख्य रूप से स्थानीय समुदाय के लोगों द्वारा किया गया है आमतौर पर स्थानीय लोगों को उनकी जमीन आजीविका और संसाधनों से लगाव एवं नियंत्रण देश की बेहतरी के लिए कुर्बान करना पड़ता है।
सिंचाई ने कई क्षेत्रों में फसल प्रारूप परिवर्तित कर दिया है जहां किसान जलगहन और वाणिज्य फसलों की ओर आकर्षित हो रहे हैं। इससे मृदा में लावणीकरण जैसी गंभीर पारिस्थितिकीय परिणाम सामने आ रहे हैं।
नदी परियोजनाओं पर आपत्तियाँ
नदी परियोजनाओं पर उठी अधिकतर आपत्तियाँ उनके उद्देश्यों में विफल हो जाने पर हैं। यह एक विडंबना ही है कि जो बाँध बाढ़ नियंत्रण के लिए बनाए जाते हैं उनके जलाशयों में तलछट जमा होने से वे बाढ़ आने का कारण बन जाते हैं। अत्यधिक वर्षा होने की दशा में तो बड़े बाँध भी कई बार बाढ़ नियंत्रण में असफल रहते हैं। वर्ष 2006 में महाराष्ट्र और गुजरात में भारी वर्षा के दौरान बाँधों से छोड़े गए जल की वजह से बाढ़ की स्थिति और भी विकट हो गई। इन बाढ़ों से न केवल जान और माल का नुकसान हुआ अपितु बृहत् स्तर पर मृदा अपरदन भी हुआ।
वर्षा जल संग्रहण
बहुउद्देशीय परियोजनाओं के अलाभप्रद असर और उन पर उठे विवादों के चलते वर्षाजल संग्रहण तंत्र इनके सामाजिक-आर्थिक और पारिस्थितिक तौर पर व्यवहार्थ विकल्प हो सकते हैं। प्राचीन भारत में उत्कृष्ट जलीय निर्माणों के साथ-साथ जल संग्रहण ढाँचे भी पाए जाते थे। लोगों को वर्षा पद्धति और मृदा के गुणों के बारे गहरा ज्ञान था। उन्होंने स्थानीय पारिस्थितिकीय परिस्थितियों और उनकी जल आवश्यकतानुसार वर्षाजल, भौमजल, नदी जल और बाढ़ जल संग्रहण के अनेक तरीके विकसित कर लिए थे।
पहाड़ी और पर्वतीय क्षेत्रों में लोगों ने ‘गुल’ अथवा ‘कुल’ जैसी वाहिकाएँ, नदी की धारा का रास्ता बदलकर खेतो में सिचाई के लिए बनाई है।
प्राचीन भारत में उत्कृष्ट जलीय निर्माणों के साथ-साथ जल संग्रहण ढांचे भी पाए जाते थे लोगों को वर्षा पद्धति और मृदा के गुणों के बारे में गहन ज्ञान था उन्होंने स्थानीय पारिस्थितिकी परिस्थितियों और उनकी जल आवश्यकता अनुसार वर्षा जल, भोम जल, नदी जल और बाढ़ जल संग्रहण के अनेक तरीके विकसित किए।
पश्चिम भारत, विशेष का राजस्थान में पीने का जल एकत्रित करने के लिए ‘छत वर्षा जल संग्रहण’ का तरीका आम है।
शुष्क और अर्धशुष्क क्षेत्रों में खेतों में वर्षा जल एकत्रित करने के लिए गड्ढे बनाए जाते थे ताकि मृदा को सिंचित किया जा सके और संरक्षित जल को खेती के लिए उपयोग में लाया जा सके। राजस्थान के जिले जैसलमेर में ‘खादीन’ और अन्य क्षेत्रों में ‘जोहड़’ इसके उदाहरण हैं।
राजस्थान के अर्ध-शुष्क और शुष्क क्षेत्रों विशेषकर बीकानेर, फलोदी और बाड़मेर में लगभग हर घर में पीने का पानी संग्रहित करने के लिए भूमिगत टैंक अथवा ‘टाँका’ हुआ करते थे। इसका आकार एक बड़े कमरे जितना हो सकता है। फलोदी में एक घर में 6.1 मीटर गहरा, 4.27 मीटर लंबा और 2.44 मीटर चौड़ा टाँका था ।
टाँका
टाँका में वर्षा जल अगली वर्षा ऋतु तक संग्रहित किया जा सकता है। यह इसे जल की कमी वाली ग्रीष्म ऋतु तक पीने का जल उपलब्ध करवाने वाला जल स्रोत बनाता है। वर्षाजल अथवा ‘पालर पानी’ जैसा कि इसे इन क्षेत्रों में पुकारा जाता है, प्राकृतिक जल का शुद्धतम रूप समझा जाता है। कुछ घरों में तो टाँको के साथ भूमिगत कमरे भी बनाए जाते हैं क्योंकि जल का यह स्रोत इन कमरों को भी ठंडा रखता था जिससे ग्रीष्म ऋतु में गर्मी से राहत मिलती है।
इस प्रकार से हम भौम जल को बचा सकते हैं जिसकी निम्नलिखित विधियां हैं
बांस ड्रिप सिंचाई प्रणाली
छत वर्षा जल संग्रहण
टाँका प्रणाली
अध्याय 4 : कृषि