भारत के पश्चिम तट पर गुजरात स्थित सूरत हिंद महासागर के रास्ते होने वाले व्यापार के सबसे महत्वपूर्ण बंदरगाहों में से एक था। उन्नसवीं सदी में ब्रिटेन को दुनिया का सबसे प्रमुख औद्योगिक राष्ट्र बना दिया था। 1850 के दशक में जब ब्रिटेन का लोहा और इस्पात उद्योग भी पनपने लगा तो ब्रिटेन ” दुनिया का कारखाना “ कहलाने लगा। ब्रिटेन के औद्योगीकरण और भारत पर ब्रिटिश विजय और उपनिवेशीकरण का गहरा संबंध था।
भारतीय कपड़े और विश्व बाज़ार :- 1750 के आस-पास भारत पुरी दुनिया में कपड़ा उत्पादन के क्षेत्र में औरों से कोसों आगे था। भारतीय कपड़े लंबे समय से अपनी गुणवत्ता और बारीक कारीगरी के लिए दुनिया भर में मशहूर थे।
शब्दों में इतिहास छिपा है :- यूरोप के व्यापारियों ने भारत से आया बारीक सूती कपड़ा सबसे पहले मौजूदा ईराक के मोसूल शहर में अरब के व्यापारियों के पास देखा था। इसी आधार पर वे बारीक बनाई वाले सभी कपड़ों को ” मस्लिन ” ( मलमल ) कहने लगे।
मसालों की तलाश :- जब पहली बार पुर्तगाली भारत आए तो उन्होंने दक्षिण-पश्चिमी भारत मे केरल के तट पर कालीकट में डेरा डाला। यहाँ से वे मसालों के साथ-साथ सूती कपड़ा भी लेते गए।
ऐसे बहुत सारे शब्द हैं जो पश्चिमी बाजारों में भारतीय कपड़ो की लोकप्रियता की कहानी कहते हैं।
– 1680 के दशक तक इंग्लैंड और यूरोप में छापेदार भारतीय सूती कपड़े की जबरदस्त माँग पैदा हो चुकी थी।
– आकर्षक फूल-पत्तियों , बारीक रेशे और सस्ती कीमत की वजह से भारतीय कपड़े का एक अलग ही रुतबा था।
– इंग्लैंड के रईस ही नहीं बल्कि खुद महारानी भी भारतीय कपड़ो से बने परिधान पहनती थीं।
मसूलीपट्टनम :- आंध्र प्रदेश में बारीक कपड़े पर छपाई ( छींट ) उन्नीसवीं सदी में ईरान और यूरोप को निर्यात होता था।
यूरोपीय बाज़ारो में भारतीय कपड़ा :- अठारहवीं सदी की शुरुआत तक आते-आते भारतीय कपड़ो की लोकप्रियता से बेचैन इंग्लैंड के ऊन व रेशम निर्माता भारतीय कपड़ो के आयात का विरोध करने लगे थे।
कैलिको :- 1720 में ब्रिटिश सरकार ने इंग्लैंड में छापेदार सूती कपड़े-छींट-के इस्तेमाल पर पाबंदी लगाने के लिए एक कानून पारित कर दिया। संयोगवश , इस कानून को भी कैलिको अधिनियम ही कहा जाता था।
स्पनिंग जैनी :- एक ऐसी मशीन जिससे एक कामगार एक साथ कई तकलियों पर काम कर सकता था। जब पहिया घूमता था सारी तकलियाँ घूमने लगती थी। 1764 में जॉन के ने स्पनिंग जैनी का आविष्कार किया जिससे परंपरागत तकलियों की उत्पादकता काफ़ी बढ़ गई।
1786 में रिचर्ड आर्कराइट ने वाष्प इंजन का आविष्कार किया जिसने सूती कपड़े की बुनाई को कांतिकारी रुप से बदल दिया। अब बहुत सारा कपड़ा बेहद कम कीमत पर तैयार किया जा सकता था। इसके बावजूद , दुनिया के बाज़ारो पर भारतीय कपड़े का दबदबा अठारहवीं सदी के आखिर तक बना रहा।
बुनकर :- बुनकर आमतौर पर बुनाई का काम करने वाले समुदायों के ही कारीगर होते थे। वे पीढ़ी-दर-पीढ़ी इसी हुनर को आगे बढ़ाते। बंगाल के तांती , उत्तर भारत के जुलाहे या मोमिन , दक्षिण भारत के साले व कैलोल्लार तथा देवांग समुदाय बुनकरी के लिए प्रसिद्घ थे। हथकरघों पर होने वाली बुनाई और उससे जुड़े व्यवसायों से लाखों भारतीय की रोजी-रोटी चलती थी।
भारतीय कपड़े का पतन :- ब्रिटेन में सूती कपड़ा उद्योग के विकास से भारतीय कपड़ा उत्पादकों पर कई तरह के असर पड़े।
पहला :- अब भारतीय कपड़े को यूरोप और अमरीका के बाजारों में ब्रिटिश उद्योगों में बने कपड़ो से मुकाबला करना पड़ता था।
दूसरा :- भारत से इंग्लैंड को कपड़ो का निर्यात मुश्किल होता जा रहा था क्योंकि ब्रिटिश सरकार ने भारत से आने वाले कपड़ो पर भारी सीमा शुल्क थोप दिए थे।
तीसरा :- उन्नसवीं सदी की शुरुआत तक इंग्लैंड ने भारतीय कपड़ो को अफ़्रीका , अमरीका और यूरोप के परंपरागत बाज़ारो से बाहर कर दिया था।
चौथा :- ब्रिटिश और यूरोपीय कम्पनियों ने भारतीय माल खरीदने बंद कर दिए इसकी वजह से हज़ारों बुनकर बेरोजगार हो गए।
सूती कपड़ा मिलों का उदय :- भारत में पहली सूती कपड़ा मिल 1854 में बम्बई में स्थापित हुई। यह कताई मिल थी। 1900 तक आते-आते बम्बई में 84 कपड़ा मिलें चालू हो चुकी थी। अहमदाबाद में पहला कारखाना 1861 में खुला। अगले साल ही संयुक्त प्रांत स्थित कानुपर में भी एक कारख़ाना खुल गया।
टीपू सुल्तान की तलवार और वुट्ज स्टील की धार इतनी सख्त और पैनी थी कि वह दुश्मन के लौह-कवच को भी आसानी से चीर सकती थी। इस तलवार में यह गुण कार्बन की अधिक मात्रा वाली वुट्ज नामक स्टील की तलवारें बहुत पैनी और लहरदार होती थीं। इनकी यह बनावट लोहे में गड़े कार्बन के बेहद सूक्ष्म कणों से पैदा होती थी।
भारतीय वुट्ज स्टील ने यूरोपीय वैज्ञानिकों को काफी आकर्षित किया था। विश्वविख्यात वैज्ञानिक और बिजली व विधुत चुम्बकत्व का आविष्कार करने वाले माइकल फैराडे ने भारतीय वुट्ज स्टील की विशेषताओं का चार साल (1818-22) तक अध्ययन किया।
गाँवो की उजड़ी भटिठयाँ :- वुट्ज स्टील उत्पादन के लिए लोहे के परिशोधन की बेहद परिष्कृत तकनीक जरूरी थी। परंतु भारत मे उन्नीसवीं सदी के अंत तक लोहे का प्रगलन एक सामान्य गतिविधि थी। प्रगालक कारगर थे जो लोहा बनाने के लिए लौह अयस्क के स्थानीय भंडारों का इस्तेमाल करते थे। इसी लोहे से कारखनों में दैनिक इस्तेमाल के औज़ार और साधन बनाए जाते थे। ज्यादातर भटिठयाँ मिट्टी और धूप में सुखायी गई ईंटों से बनी होती थी।
भारत में लोहा व इस्पात कारखानों का उदय :- साल 1904 की बात है। अप्रैल के महीने में अमरीकी भूवैज्ञानिक चालर्स वेल्ड और जमशेदजी टाटा के सबसे बड़े बेटे दोराबजी टाटा छत्तीसगढ़ में लौह अयस्क भंडारों की खोजबीन करते घूम रहे थे।
जमशेदजी टाटा भारत में बड़ा भाग खर्च करने को तैयार थे। कुछ सालों बाद सुब्रह्रेखा नदी के तट पर बहुत सारा जंगल साफ करके फैक्ट्री और एक औद्योगिक शहर बसाने के लिए जगह बनाई । इस शहर को जमशेदपुर का नाम दिया गया। यहाँ टाटा आयरन एण्ड स्टील कम्पनी ( टिस्को ) की स्थापना हुई जिसमें 1912 से स्टील का उत्पादन होने लगा। रेल के पटरियों के लिए भरतीय रेलवे टिस्को पर आश्रित हो गया।
लोहे और इस्पात के मामले में भी औद्योगिक विस्तार शुरू हुआ। जिससे औद्योगिक वस्तुओं की माँग में इज़ाफ़ा हुआ। राष्ट्रीय आंदोलन विकसित हुआ , औद्योगिक वर्ग ताकतवर होता गया।
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