अध्याय 10 : नए साम्राज्य और राज्य

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प्रशस्तियाँ :- यह एक विशेष किस्म का अभिलेख है , जिन्हे प्रशस्ति कहते हैं। यह एक संस्कृत शब्द है , जिसका अर्थ ‘ प्रशंसा ‘ होता है। प्रशस्तियाँ लिखने का प्रचलन भी था।

समुद्रगुप्त की प्रशस्ति :- समुद्रगुप्त के दरबार में कवि व मंत्री रहे हरिषेण ने इसमें राजा की एक योद्धा , युद्धों को जीतने वाले राजा , विद्वान तथा एक उत्कृष्ट कवि ने भरपूर प्रशंसा की है।

 

 

हरिषेण द्वारा समुद्रगुप्त की नीतियाँ :- 1. आर्यावर्त के नौ शासकों को समुद्रगुप्त ने हराकर उनके राज्य को अपने साम्राज्य में मिला लिया। 2. दक्षिणापथ के बारह शासक आते हैं। इन सब ने हार जाने पर समुद्रगुप्त के सामने समर्पण किया था। 3. इसमें असम , तटीय बंगाल , नेपाल और उत्तर-पश्चिम में कई गण या संघ आते थे। ये समुद्रगुप्त के लिए उपहार लाते थे। उनकी आज्ञाओं का पालन करते थे तथा उनके दरबार में उपस्थ्ति हुआ करते थे। 4. कुषाण तथा शक वंश और श्रीलंका के शासक भी थे। इन्होने समुद्रगुप्त की अधीनता स्वीकार की और अपनी पुत्रियों का विवाह उससे किया।

 

विक्रम संवत :- 58 ईसा पूर्व में प्रारंभ होने वाले विक्रम संवत को गुप्त राजा चन्द्रगुप्त द्वितीय के नाम से जोड़ा जाता है ऐसा कहा जाता है की उन्होंने शको पर विजय के प्रतीक के रूप म इस संवत की स्थापना की तथा विक्रमादित्य की उपाधि धारण की थी।

 

वंशावलियाँ :- अधिकांश प्रशस्तियाँ शासको के पूर्वजों के बारे में भी बताती है। उनकी माँ कुमार देवी , लिच्छवि गण की थी और पिता चन्द्रगुप्त गुप्तवंश के पहले शासक थे , जिन्होंने महाराजाधिराज जैसी बड़ी उपाधि धारण की। समुद्रगुप्त ने भी यह उपाधि धारण की।

 

हर्षवर्धन तथा हर्षचरित :- 1400 साल पहले हर्षवर्धन ने शासन किया। उनके दरबारी कवि बाणभट्ट ने संस्कृत में उनकी जीवनी हर्षचरित लिखी है। इसमें हर्षवर्धन की वंशावली देते हुए उनके राजा बनने तक का वर्णन है। चीनी यात्री ह्वेन त्सांग हर्ष के दरबार में रहे। उन्होंने वहाँ जो कुछ देखा , उसका विस्तृत विवरण दिया है। थानेसर के राजा बने मगध और बंगाल को जीतकर उन्हें पूर्व में भी सफलता मिला थी। दक्कन की ओर बढ़ने की कोशिश की तब चालुक्य नरेश , पुलकेशिन द्वितीय ने उन्हें रोक दिया। पुलकेशिन द्वितीय की

 

 

प्रसस्तियाँ :- इस काल में पल्ल्व और चालुक्य दक्षिण भारत के सबसे महत्वपूर्ण राजवंश थे। पल्लवों का राज्य राजधानी काँचीपुरम के आस-पास के क्षेत्रों से लेकर कावेरी नदी के डेल्टा तक फैला था , जबकि चालुक्यों का राज्य कृष्णा और तुंगभद्रा नदियों के बिच स्थित था। चालुक्यों की राजधानी ऐहोल थी। यह एक प्रमुख व्यापारिक केंद्र था। धीरे-धीरे यह एक धर्मिक केंद्र भी बन गया जहाँ कई मंदिर थे। पल्लव और चालुक्य एक-दूसरे की सीमाओं का अतिक्रमण करते थे। पुलकेशिन द्वितीय सबसे प्रसिद्ध चालुक्य राजा थे। उनके बारे में हमें उनके दरबारी कवि ‘ रविकीर्ति ‘ द्वारा रचित प्रशस्ति से पता चलता है। रविकीर्ति के अनुसार उन्होंने पूर्व तथा पश्चिम दोनों समुद्रतटीय इलाकों में अपने अभियान चलाए। इसके अतिरिक्त उन्होंने हर्ष को भी आगे बढ़ने से रोका।

 

इन राज्यों का प्रशासन कैसे चलता था :- प्रशासन की प्राथमिक इकाई गाँव होते थे। लेकिन धीरे-धीरे कई नए बदलाव आए – कुछ महत्वपूर्ण प्रशासकीय पद आनुवंशिक बन गए। -कभी-कभी , एक ही व्यक्ति कई पदों पर कार्य करता था।- वहाँ के स्थानीय प्रशासन में प्रमुख व्यक्तियों का बहुत बोलबाला था।

एक नए प्रकार की सेना :- सामंत भूमि से कर वसूलते थे जिससे वे सेना तथा घोड़ो की देखभाल करते थे। साथ ही वे इससे युद्ध के लिए हथियार जुटाते थे।

 

 

दक्षिण के रज्यों में सभाएँ :- पल्ल्वों के अभिलेखों में कई स्थानीय सभाओं की चर्चा है। इनमें से एक था ब्राह्मण भूस्वामियों का संगठन जिसे सभा कहते थे। ये सभाएँ उप-समितियों के ज़रिए सिंचाई , खेतीबड़ी से जुड़ विभन्न काम , सड़क निर्माण , शनीय मंदिरो की देखरेख आदि का काम करती थी।

नगरम :- व्यापारियों के संगठन का नाम था। संभवत: इन सभाओं पर धनी तथा शक्तिशाली भूस्वामियों और व्यापारियों का नियंत्रण था। कालिदास – अभिज्ञान-शाकुंतलम

 

 

अध्याय 11 : इमारतें चित्र तथा किताबें