आनुवंशिकता एवं जैव विकास
आनुवंशिकी :- लक्षणों के वंशीगत होने एवं विभिन्नताओं का अध्ययन ही आनुवंशिकी कहलाता है ।
आनुवंशिकता :- विभिन्न लक्षणों का पूर्ण विश्वसनीयता के साथ वंशागत होना आनुवंशिकता कहलाता है ।
विभिन्नता :- एक स्पीशीज के विभिन्न जीवों में शारीरिक अभिकल्प और डी ० एन० ए० में अन्तर विभिन्नता कहलाता है ।
विभिन्नता के दो प्रकार :-
शारीरिक कोशिका विभिन्नता :- यह शारीरिकी कोशिका में आती है । ये अगली पीढ़ी में स्थानान्तरित नहीं होते । जैव विकास में सहायक नहीं है । इन्हें उपार्जित लक्षण भी कहा जाता है ।
उदाहरण :- कानों में छेद करना , कुत्तों में पूँछ काटना ।
जनन कोशिका विभिन्नता :- यह जनन कोशिका में आती है । यह अगली पीढ़ी में स्थानान्तरित होते हैं । जैव विकास में सहायक हैं । इन्हें आनुवंशिक लक्षण भी कहा जाता है ।
उदाहरण :- मानव के बालों का रंग , मानव शरीर की लम्बाई ।
जनन के दौरान विभिन्नताओं का संचयन
विभिन्नताएँ :- जनन द्वारा परिलक्षित होती हैं चाहे जन्तु अलैंगिक जनन हो या लैंगिक जनन ।
अलैंगिक जनन :– विभिन्नताएँ कम होंगी डी.एन.ए. प्रतिकृति के समय न्यून त्रुटियों के कारण उत्पन्न होती हैं ।
लैंगिक जनन :- विविधता अपेक्षाकृत अधिक होगी क्रास संकरण के द्वारा , गुणसूत्र क्रोमोसोम के विसंयोजन द्वारा , म्यूटेशन ( उत्परिवर्तन ) के द्वारा ।
विभिन्नता के लाभ :- प्रकृति की विविधता के आधार पर विभिन्नता जीवों को विभिन्न प्रकार के लाभ हो सकते हैं ।
उदाहरण :- ऊष्णता को सहन करने की छमता वाले जीवपणुओं को अधिक गर्मी से बचने की संभावना अधिक होती है । पर्यावरण कारकों द्वारा उत्तम परिवर्त का चयन जैव विकास प्रक्रम का आधार बनाता है ।
मेंडल का योगदान :-
मेंडल ने वंशागति के कुछ मुख्य नियम प्रस्तुत किए । मेंडल को आनुवंशिकी के जनक के नाम से जाना जाता है । मैंडल ने मटर के पौधे के अनेक विपर्यासी (विकल्पी ) लक्षणों का अध्ययन किया जो स्थूल रूप से दिखाई देते हैं । उदाहरणत :- गोल / झुर्रीदार बीज , लंबे / बौने पौधे , सफेद / बैंगनी फूल इत्यादि ।
उसने विभिन्न लक्षणों वाले मटर के पौधों को लिया जैसे कि लंबे पौधे तथा बौने पौधे । इससे प्राप्त संतति पीढ़ी में लंबे एवं बौने पौधों के प्रतिशत की गणना की ।
मेंडल द्वारा मटर के पौधे का चयन क्यों किया
मेंडल ने मटर के पौधे का चयन निम्नलिखित गुणों के कारण किया ।
मटर के पौधों में विपर्यासी विकल्पी लक्षण स्थूल रूप से दिखाई देते हैं । इनका जीवन काल छोटा होता है । सामान्यतः स्वपरागण होता है परन्तु कृत्रिम तरीके से परपरागण भी कराया जा सकता है । एक ही पीढ़ी में अनेक बीज बनाता है ।
I. एकल संकरण ( मोनोहाइब्रिड ) :- मटर के दो पौधों के एक जोड़ी विकल्पी लक्षणों के मध्य क्रास संकरण को एकल संकर क्रास कहा जाता है । उदाहरण :- लंबे पौधे तथा बौने पौधे के मध्य संकरण ।
अवलोकन :-
( 1 ) प्रथम संतति पीढ़ी अथवा F₁ में कोई पौधा बीच की ऊँचाई का नहीं था । सभी पौधे लंबे थे । इसका अर्थ था कि दो लक्षणों में से केवल एक पैतृक जनकीय लक्षण ही दिखाई देता है । ( 2 ) F₂ पीढ़ी में 3/4 लंबे पौधे वे 1/4 बौने पौधे थे । ( 3 ) फीनोटाइप F₂ – 3 : 1 ( 3 लंबे पौधे : 1 बौना पौधा ) जीनोटाइप F₂ – 1 : 2 : 1 TT , Tt , tt का संयोजन 1 : 2 : 1 अनुपात में प्राप्त होता है ।
निष्कर्ष :-
TT व Tt दोनों लंबे पौधे हैं , यद्यपि tt बौना पौधा है । T की एक प्रति पौधों को लंबा बनाने के लिए पर्याप्त है । जबकि बौनेपन के लिए t की दोनों प्रतियाँ tt होनी चाहिए । T जैसे लक्षण प्रभावी लक्षण कहलाते हैं , t जैसे लक्षण अप्रभावी लक्षण कहलाते हैं ।
द्वि – संकरण द्वि / विकल्पीय संकरण :- मटर के दो पौधों के दो जोड़ी विकल्पी लक्षणों के मध्य क्रास
द्विसंकर क्रॉस के परिणाम जिनमें जनक दो जोड़े विपरीत विशेषकों में भिन्न थे जैसे बीच का रंग और बीच की आकृति ।
F₂ गोल , पीले बीज : 9 गोल , हरे बीज : 3 झुरींदार , पीले बीज : 3 झुरींदार , हरे बीज : 1
इस प्रकार से दो अलग अलग ( बीजों की आकृति एवं रंग ) को स्वतंत्र वंशानुगति होती है ।
आनुवंशिकता के नियम :- मेंडेल ने मटर पर किए संकरण प्रयोगों के निष्कर्षो के आधार पर कुछ सिद्धांतों का प्रतिपादन किया जिन्हें मेंडेल कें आनुवंशिकता के नियम कहा जाता है ।
मेंडेल के आनुवांशिक के नियम
यह नियम निम्न प्रकार से हैं :- प्रभावित का नियम । पृथक्करण का नियम / विसंयोजन का नियम । स्वतंत्र अपव्यूहन का नियम ।
प्रभाविता का नियम :- जब मेंडल ने भिन्न – भिन्न लक्षणों वाले समयुग्मजी पादपों में जब संकर संकरण करवाया तो इस क्रॉस में मेंडेल ने एक ही लक्षण प्रदर्शित करने वाले पादपों का ही अध्ययन किया । तो उसने पाया कि एक प्रभावी लक्षण अपने आप को अभिव्यक्त करता है । और एक अप्रभावी लक्षण अपने आप को छिपा लेता है । इसी को प्रभाविता कहा गया है और इस नियम को मेंडल का प्रभावतििा का नियम कहा जाता है ।
पृथक्करण का नियम / विसंयोजन का नियम / युग्मकों की शुद्धता का निमय :- युग्मक निर्माण के समय दोनों युग्म विकल्पी अलग हो जाते है । अर्थात् एक युग्मक में सिर्फ एक विकल्पी हो जाता है । इसलिए इसे पृथक्करण का नियम कहते है ।
युग्मक किसी भी लक्षण के लिए शुद्ध होते है ।
स्वतंत्र अपव्यूहन का नियम :- यह नियम द्विसंकर संकरण के परिणामों पर आधारित है । इस नियम के अनुसार किसी द्विसंकर संरकरण में एक लक्षण की वंशगति दूसरे लक्षण की वंशागति से पूर्णतः स्वतंत्र होती है । अर्थात् एक लक्षण के युग्मा विकल्पी दूसरे लक्षण के युग्मविकल्पी से निर्माण के समय स्वतंत्र रूप से पृथक व पुनव्यवस्थित होते है ।
इसे में लक्षण अनुपात 9 : 3 : 3 : 1 होता है ।
लिंग निर्धारण :- अलग – अलग स्पीशीज लिंग निर्धारण के लिए अलग – अलग युक्ति अपनाते है ।
लिंग निर्धारण के लिए उत्तरदायी कारक :- कुछ प्राणियों में लिंग निर्धारण अंडे के ऊष्मायन ताप पर निर्भर करता है उदाहरण :- घोंघा कुछ प्राणियों जैसे कि मानव में लिंग निर्धारण लिंग सूत्र पर निर्भर करता है । XX ( मादा ) तथा XY ( नर )
मानव में लिंग निर्धारण :- आधे बच्चे लड़के एवं आधे लड़की हो सकते हैं । सभी बच्चे चाहे वह लड़का हो अथवा लड़की अपनी माता से X गुणसूत्र प्राप्त करते हैं । अत : बच्चों का लिंग निर्धारण इस बात पर निर्भर करता है कि उन्हें अपने पिता से किस प्रकार का गुणसूत्र प्राप्त हुआ है ।
जिस बच्चे को अपने पिता से X गुणसूत्र वंशानुगत हुआ है वह लड़की एवं जिसे पिता से Y गुणसूत्र वंशागत होता है , वह लड़का होता है ।
विकास :- वह निरन्तर धीमी गति से होने वाला प्रक्रम जो हजारों करोड़ों वर्ष पूर्व जीवों में शुरू हुआ जिससे नई स्पीशीज का उद्भव हुआ विकास कहलाता है ।
उपार्जित लक्षण :- वे लक्षण जिसे कोई जीव अपने जीवन काल में अर्जित करता है उपार्जित लक्षण कहलाता है | उदाहरण : अल्प पोषित भृंग के भार में कमी ।
उपार्जित लक्षणों का गुण :- ये लक्षण जीवों द्वारा अपने जीवन में प्राप्त किये जाते हैं । ये जनन कोशिकाओं के डी.एन.ए. ( DNA ) में कोई अंतर नहीं लाते व अगली पीढ़ी को वंशानुगत / स्थानान्तरित नहीं होते । जैव विकास में सहायक नहीं है । उदाहरण :– अल्प पोषित भंग के धार में कमी ।
आनुवंशिक लक्षण :- वे लक्षण जिसे कोई जीव अपने जनक से प्राप्त करता है आनुवंशिक लक्षण कहलाता है । उदाहरण :- मानव के आँखों व बालों के रंग ।
आनुवंशिक लक्षण के गुण :- ये लक्षण जीवों की वंशानुगत प्राप्त होते हैं । ये जनन कोशिकाओं में घटित होते हैं तथा अगली पीढ़ी में स्थानान्तरित होते हैं । जैव विकास में सहायक है । उदाहरण :- मानव के आँखों व बालों के रंग ।
जाति उदभव :- पूर्व स्पीशीज से एक नयी स्पीशीज का बनना जाति उदभव कहलाता है ।
जाति उद्भव किस प्रकार होता है ?
जीन प्रवाह :- उन दो समष्टियों के बीच होता है जो पूरी तरह से अलग नहीं हो पाती है किंतु आंशिक रूप से अलग – अलग हैं ।
आनुवंशिक विचलन :- किसी एक समष्टि की उत्तरोत्तर पीढ़ियों में जींस की बारंबरता से अचानक परिवर्तन का उत्पन होना ।
प्राकृतिक चुनाव :- वह प्रक्रम जिसमें प्रकृति उन जीवों का चुनाव कर बढ़ावा देती है जो बेहतर अनुकूलन करते हैं ।
भौगोलिक पृथक्करण :- जनसंख्या में नदी , पहाड़ आदि के कारण आता है । इससे दो उपसमष्टि के मध्य अंतर्जनन नहीं हो पाता ।
आनुवंशिक विचलन का कारण :- यदि DNA में परिवर्तन पर्याप्त है । गुणसूत्रों की संख्या में परिवर्तन ।
अभिलक्षण :- बाह्य आकृति अथवा व्यवहार का विवरण अभिलक्षण कहलाता है । दूसरे शब्दों में , विशेष स्वरूप अथवा विशेष प्रकार्य अभिलक्षण कहलाता है । उदहारण :- हमारे चार पाद होते हैं , यह एक अभिलक्षण है । पौधों में प्रकाशसंश्लेषण होता है , यह भी एक अभिलक्षण है ।
समजात अभिलक्षण :- विभिन्न जीवों में यह अभिलक्षण जिनकी आधारभूत संरचना लगभग एक समान होती है । यद्यपि विभिन्न जीवों में उनके कार्य भिन्न – भिन्न होते हैं ।
उदाहरण :- पक्षियों , सरीसृप , जल – स्थलचर , स्तनधारियों के पदों की आधारभूत संरचना एक समान है , किन्तु यह विभिन्न कशेरूकी जीवों में भिन्न – भिन्न कार्य के लिए होते हैं । समजात अंग यह प्रदर्शित करते हैं कि इन अंगों की मूल उत्पत्ति एक ही प्रकार के पूर्वजों से हुई है व जैव विकास का प्रमाण देते हैं ।
समरूप अभिलक्षण :- वह अभिलक्षण जिनकी संरचना व संघटकों में अंतर होता है , सभी की उत्पत्ति भी समान नहीं होती किन्तु कार्य समान होता है । उदाहरण :- पक्षी के अग्रपाद एवं चमगादड़ के अग्रपाद । समरूप अंग यह प्रदर्शित करते हैं कि जन्तुओं के अंग जो समान कार्य करते हैं , अलग – अलग पूर्वजों से विकसित हुए हैं ।
जीवाश्म :- यदि कोई मृत कीट गर्म मिट्टी में सूख कर कठोर हो जाए तथा उसमें कीट के शरीर की छाप सुरक्षित रह जाए । जीव के इस प्रकार के परिरक्षित अवशेष जीवाश्म कहलाते हैं । उदहारण :-
आमोनाइट – जीवाश्म – अकशेरूकी ट्राइलोबाइट – जीवाश्म – अकशेरूकी नाइटिया – जीवाश्म – मछली राजोसौरस – जीवाश्म – डाइनोसॉर कपाल
जीवाश्म कितने पुराने हैं :- खुदाई करने पर पृथ्वी की सतह के निकट वाले जीवाश्म गहरे स्तर पर पाए गए जीवाश्मों की अपेक्षा अधिक नए होते हैं ।
फॉसिल डेटिंग :- जिसमें जीवाश्म में पाए जाने वाले किसी एक तत्व के विभिन्न समस्थानिकों का अनुपात के आधार पर जीवाश्म का समय निर्धारण किया जाता है ।
विकास एवं वर्गीकरण :- विकास एवं वगीकरण दोनों आपस में जुड़े हैं ।
जीवों का वर्गीकरण उनके विकास के संबंधों का प्रतिबिंब है । दो स्पीशीज के मध्य जितने अधिक अभिलक्षण समान होंगे उनका संबंध भी उतना ही निकट का होगा । जितनी अधिक समानताएँ उनमें होंगी उनका उद्भव भी निकट अतीत में समान पूर्वजों से हुआ होगा । जीवों के मध्य समानताएँ हमें उन जीवों को एक समूह में रखने और उनके अध्ययन का अवसर प्रदान करती हैं ।
विकास के चरण :- विकास क्रमिक रूप से अनेक पीढ़ियों में हुआ ।
I. योग्यता को लाभ :- जैसे
आँख का विकास – जटिल अंगों का विकास डी.एन.ए. में मात्र एक परिवर्तन द्वारा संभव नहीं है , ये क्रमिक रूप से अनेक पीढ़ियों में होता है ।
प्लैनेरिया में अति सरल आँख होती है । कीटों में जटिल आँख होती है । मानव में द्विनेत्री आँख होती है ।
II . गुणता के लाभ :- जैसे
पंखों का विकास :- पंख ( पर ) -ठंडे मौसम में ऊष्मारोधन के लिए विकसित हुए थे , कालांतर में उड़ने के लिए भी उपयोगी हो गए ।
उदाहरण :- डाइनोसॉर के पंख थे , पर पंखों से उड़ने में समर्थ नहीं थे । पक्षियों ने परों को उड़ने के लिए अपनाया ।
कृत्रिम चयन :- बहुत अधिक भिन्न दिखने वाली संरचनाएं एक समान परिकल्प में विकसित हो सकती है । दो हजार वर्ष पूर्व मनुष्य जंगली गोभी को एक खाद्य पौधे के रूप में उगाता था तथा उसने चयन द्वारा इससे विभिन्न सब्जियाँ विकसित की । इसे कृत्रिम चयन कहते हैं ।
आण्विक जातिवृत :- यह इस विचार पर निर्भर करता है कि जनन के दौरान डी.एन.ए. में होने वाले परिवर्तन विकास की आधारभूत घटना है । दूरस्थ संबंधी जीवों के डी.एन.ए. में विभिन्नताएँ अधिक संख्या में संचित होंगी ।
मानव विकास के अध्ययन के मुख्य साधन :- उत्खनन डी.एन.ए. अनुक्रम का निर्धारण समय निर्धारण जीवाश्म अध्ययन