अध्याय 2 : वन एवं वन्य जीव संसाधन

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 भारत में वनस्पति जात और प्राणी जात

 

भारत जैव विविधता के संदर्भ में विश्व के सबसे समृद्ध देशों में से एक है। यहां विश्व की सारी जातियों की 8% संख्या (लगभग 16 लाख) पाई जाती है।  यह अभी खोजी जाने वाली उप जातियों से दो या तीन गुना है। 

 

कुछ अनुमान यह कहते हैं कि भारत में 10 प्रतिशत वन्य वनस्पतिजात और 20 प्रतिशत स्तनधारियों को लुप्त होने का खतरा है। इनमें से कई उपजातियाँ तो नाजुक अवस्था में हैं और लुप्त होने के कगार पर हैं। इनमें चीता, गुलाबी सिर वाली बत्तख, पहाड़ी कोयल (Quail) और जंगली चित्तीदार उल्लू और मधुका इनसिगनिस (महुआ की जंगली किस्म) और हुबरड़िया हेप्टान्यूरोन (घास की प्रजाति) जैसे पौधे शामिल हैं। वास्तव में कोई भी नहीं बता सकता कि अब तक कितनी प्रजातियाँ लुप्त हो चुकी हैं। आज हमारा ध्यान अधिक बड़े और दिखाई देने वाले प्राणियों और पौधे के लुप्त होने पर अधिक केंद्रित है परंतु छोटे प्राणी जैसे कीट और पौधे भी महत्त्वपूर्ण होते हैं।

 

प्राकृतिक संसाधन संरक्षण संघ (IUCN ) के अनुसार इनको निम्नलिखित श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है –

 

सामान्य जातियाँ

 ये वे जातियाँ हैं जिनकी संख्या जीवित रहने के लिए सामान्य मानी जाती हैं, जैसे पशु, साल, चीड़ और कृन्तक ( रोडेंट्स) इत्यादि ।

 

संकटग्रस्त जातियाँ

ये वे जातियाँ हैं जिनके लुप्त होने का खतरा है। जिन विषम परिस्थितियों के कारण इनकी संख्या कम हुई है, यदि वे जारी रहती हैं तो इन जातियों का जीवित रहना कठिन है। काला हिरण, मगरमच्छ, भारतीय जंगली गधा, गैंडा, शेर-पूँछ वाला बंदर, संगाई ( मणिपुरी हिरण ) इत्यादि इस प्रकार की जातियों के उदाहरण हैं।

 

सुभेद्य (Vulnerable) जातियाँ

ये वे जातियाँ हैं जिनकी संख्या घट रही है। यदि इनकी संख्या पर विपरीत प्रभाव डालने वाली परिस्थितियाँ नहीं बदली जाती और इनकी संख्या घटती रहती है तो यह संकटग्रस्त जातियों की श्रेणी में शामिल हो जाएँगी। नीली भेड़, एशियाई हाथी, गंगा नदी की डॉल्फिन इत्यादि इस प्रकार की जातियों के उदाहरण हैं।

 

दुर्लभ जातियाँ –

इन जातियों की संख्या बहुत कम या सुभेद्य हैं और यदि इनको प्रभावित करने वाली विषम परिस्थितियाँ नहीं परिवर्तित होती तो यह संकटग्रस्त जातियों की श्रेणी में आ सकती हैं।

 

स्थानिक जातियाँ –

प्राकृतिक या भौगोलिक सीमाओं – से अलग विशेष क्षेत्रों में पाई जाने वाली जातियाँ अंडमानी टील (teal), निकोबारी कबूतर, अंडमानी जंगली सुअर और अरुणाचल के मिथुन इन जातियों के उदाहरण हैं।

 

लुप्त जातियाँ

ये वे जातियाँ हैं जो इनके रहने के आवासों में खोज करने पर अनुपस्थित पाई गई हैं। ये उपजातियाँ स्थानीय क्षेत्र, प्रदेश, देश, महाद्वीप या पूरी पृथ्वी से ही लुप्त हो गई हैं। ऐसी उपजातियों में एशियाई चीता और गुलाबी सिरवाली बत्तख शामिल हैं।

 

लुप्त होते वन

भारत में जिस पैमाने पर वन कटाई हो रही है, वह विचलित कर देने वाली बात है। देश में वन आवरण के अंतर्गत अनुमानित 807276 वर्ग किमी. क्षेत्रफल है। यह देश के कुल भौगोलिक क्षेत्रफल का 24.56 प्रतिशत हिस्सा है। (सघन वन 12.4 प्रतिशत, खुला वन 9.26 प्रतिशत और मैंग्रोव 0.15 प्रतिशत) । स्टेट ऑफ फोरेस्ट रिपोर्ट (2019) 

 

 

भारत में वनों को सबसे बड़ा नुकसान उपनिवेश काल में रेललाइन, कृषि, व्यवसाय, वाणिज्य वानिकी और खनन क्रियाओं में वृद्धि से हुआ। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भी वन संसाधनों के सिकुड़ने से कृषि का फैलाव महत्त्वपूर्ण कारकों में से एक रहा है। भारत में वन सर्वेक्षण के अनुसार 1951 और 1980 के बीच लगभग 26,200 वर्ग किमी. वन क्षेत्र कृषि भूमि में परिवर्तित किया गया। अधिकतर जनजातीय क्षेत्रों, विशेषकर पूर्वोत्तर और मध्य भारत में स्थानांतरी (झूम) खेती अथवा ‘स्लैश और बर्न’ खेती के चलते वनों की कटाई या निम्नीकरण हुआ है।

 

बड़ी विकास परियोजनाओं ने भी वनों को बहुत नुकसान पहुँचाया है। 1952 से नदी घाटी परियोजनाओं के कारण 5000 वर्ग किमी. से अधिक वन क्षेत्रों को साफ करना पड़ा है यह प्रक्रिया अभी भी जारी है और मध्य प्रदेश में 4,00,000 हैक्टेयर से अधिक वन क्षेत्र नर्मदा सागर परियोजना के पूर्ण हो जाने से जलमग्न हो जाएगा। वनों की बर्बादी में खनन ने भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है।

 

पश्चिम बंगाल में बक्सा टाईगर रिज़र्व ( reserve),  डोलोमाइट के खनन के कारण गंभीर खतरे में है। इसने कई प्रजातियों के प्राकृतिक आवासों को नुकसान पहुँचाया है और कई जातियों जिसमें भारतीय हाथी भी शामिल हैं, के आवागमन मार्ग को बाधित किया है।

 

 

पारिस्थितिकी तंत्र देश के मूल्यवान वन पदार्थों, खनिज और अन्य संसाधनों के संचय कोष हैं जो तेजी से विकसित होती औद्योगिक शहरी अर्थव्यवस्था की माँग की पूर्ति के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण हैं। ये आरक्षित क्षेत्र अलग-अलग लोगों के लिए अलग-अलग मायने रखते है और विभिन्न वर्गों के बीच संघर्ष के लिए अनुकूल परिस्थितियाँ पैदा करते हैं।

 

भारत जैव-विविधता को कम करने वाले कारको में वन्य जीव के आवास का विनाश, जंगली जानवरों को मारना व आखेटन, पर्यावरणीय प्रदूषण व विद्याक्तिकरण और दावानल आदि शामिल हैं। पर्यावरण विनाश के अन्य मुख्य कारकों में संसाधनों का असमान बढ़वारा व उनका असमान उपभोग और पर्यावरण के रख-रखाव को जिम्मेदारी में असमानता शामिल हैं। आमतौर पर विकासशील देशों में पर्यावरण विनाश का मुख्य दोषी अत्यधिक जनसंख्या को माना जाता है। यद्यपि एक अमेरिकी नागरिक का औसत संसाधन उपभोग एक सोमाली नागरिक के औसत उपभोग से 40 गुणा ज्यादा है।

 

वनों और वन्य जीवन का विनाश मात्र जीव विज्ञान का विषय ही नहीं है। जैव संसाधनों का विनाश सांस्कृतिक विविधता के विनाश से जुड़ा हुआ है। जैव विनाश के कारण कई मूल जातियाँ और वनों पर आधारित समुदाय निर्धन होते जा रहे हैं और आर्थिक रूप से हाशिये पर पहुँच गए हैं। यह समुदाय खाने पीने, औषधि, संस्कृति, अध्यात्म इत्यादि के लिए वनों और वन्य जीवों पर निर्भर हुई हैं। गरीब वर्ग में भी महिलाएँ पुरुषों की तुलना में अधिक प्रभावित हैं।

कई समाजों में खाना, चारा, जल और अन्य आवश्यकता की वस्तुओं को इकट्ठा करने की मुख्य जिम्मेदारी महिलाओं की ही होती है। जैसे ही इन सरव संसाधनों की कमी होती जा रही है, महिलाओं पर कार्य (sa भार बढ़ता जा रहा है और कई बार तो उनको संसाधन पढ़ इकट्ठा करने के लिए 10 किमी. से भी अधिक पैदल घोष चलना पड़ता है। इससे उन्हें गंभीर स्वास्थ्य समस्याएँ विशे झेलनी पड़ती हैं, काम का समय बढ़ने के कारण घर और बच्चों की उपेक्षा होती है जिसके गंभीर सामाजिक दुष्परिणाम हो सकते हैं।

 

 

भारत में वन और वन्य जीवन का संरक्षण

 

वन्य जीवन का संरक्षण वन्य जीवन और वनों में तेज गति से हो रहे ह्रास के कारण इनका संरक्षण बहुत आवश्यक हो गया है। परंतु हमें वनों और वन्य जीवन का संरक्षण करना आवश्यक क्यों है? संरक्षण से पारिस्थितिकी विविधता बनी रहती है। तथा हमारे जीवन साध्य संसाधन जल, वायु और मृदा बने रहते हैं। यह विभिन्न जातियों में बेहतर जनन के लिए वनस्पति और पशुओं में जींस (genetic) विविधता को भी संरक्षित करती है। उदाहरण के तौर पर हम कृषि में अभी भी पारंपरिक फसलों पर निर्भर हैं। जलीय जैव विविधता मोटे तौर पर मछली पालन बनाए रखने पर निर्भर है।

 

 

1960 और 1970 के दशकों के दौरान, पर्यावरण संरक्षकों ने राष्ट्रीय वन्यजीवन सुरक्षा कार्यक्रम की पुरजोर माँग की। भारतीय वन्यजीवन (रक्षण) अधिनियम 1972 में लागू किया गया जिसमें वन्य जीवों के आवास रक्षण के अनेक प्रावधान थे। सारे भारत में रक्षित जातियों की सूची भी प्रकाशित की गई। इस कार्यक्रम के तहत बची हुई संकटग्रस्त जातियों के बचाव पर, शिकार प्रतिबंधन पर, वन्यजीव आवासों का कानूनी रक्षण तथा जंगली जीवों के व्यापार पर रोक लगाने आदि पर प्रबल जोर दिया गया है।

 

 केंद्रीय सरकार व कई राज्य सरकारों ने राष्ट्रीय उद्यान और वन्य जीव पशुविहार (sanctuary) स्थापित किए जिनके बारे में आप पहले पढ़ चुके हैं। केंद्रीय सरकार ने कई परियोजनाओं की भी घोषणा की जिनका उद्देश्य गंभीर खतरे में पड़े कुछ विशेष वन प्राणियों को रक्षण प्रदान करना था। इन प्राणियों में बाघ, एक सींग वाला गैंडा, कश्मीरी हिरण अथवा हंगुल (hangul), तीन प्रकार के मगरमच्छ – स्वच्छ जल मगरमच्छ, लवणीय जल मगरमच्छ और घड़ियाल,

 

वन्य जीव अधिनियम 1980 और 1986 के तहत् सैकड़ों तितलियों, पतंगों, भृगों और एक ड्रैगनफ्लाई को भी संरक्षित जातियों में शामिल किया गया है। 1991 में पौधों की भी 6 जातियाँ पहली बार इस सूची में रखी गई ।

 

 

वन और वन्य जीव संसाधनों के प्रकार और वितरण

यदि हम वन और वन्य जीव संसाधनों को संरक्षित करना चाहें, तो उनका प्रबंधन, नियंत्रण और विनियमन अपेक्षाकृत कठिन है। भारत में अधिकतर वन और वन्य जीवन या तो प्रत्यक्ष रूप में सरकार के अधिकार क्षेत्र में हैं या वन विभाग अथवा अन्य विभागों के जरिये सरकार के प्रबंधन में हैं। इन्हें निम्नलिखित वर्गों में बाँटा गया है-

 

1 आरक्षित वन

देश में आधे से अधिक वन क्षेत्र आरक्षित वन घोषित किए गए हैं। जहाँ तक वन और वन्य प्राणियों के संरक्षण की बात है, आरक्षित वनों को सर्वाधिक मूल्यवान माना जाता है।

 

2 रक्षित वन
वन विभाग के अनुसार देश के कुल वन क्षेत्र का एक-तिहाई हिस्सा रक्षित है। इन वनों को और अधिक नष्ट होने से बचाने के लिए इनकी सुरक्षा की जाती है।

 

3 अवर्गीकृत वन
अन्य सभी प्रकार के वन और बंजर भूमि जो सरकार, व्यक्तियों और समुदायों के स्वामित्व में होते हैं, अवर्गीकृत वन कहे जाते हैं।

आरक्षित और रक्षित वन ऐसे स्थाई वन क्षेत्र हैं।  जिनका रखरखाव इमारती लकड़ी अन्य वन पदार्थों और इनके बचाव के लिए किया जाता है।  मध्यप्रदेश में स्थाई वनों के अंतर्गत सार्वजनिक क्षेत्र हैं, जो कि देश के कुल वन क्षेत्र का 75% है। इसके अतिरिक्त जम्मू और कश्मीर आंध्र प्रदेश, उत्तराखण्ड केरल, तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल और महाराष्ट्र में भी कुल वनों में एक बड़ा अनुपात आरक्षित वनों का है; 

 

समुदाय और वन संरक्षण

 

भारत के कुछ क्षेत्रों में तो स्थानीय समुदाय सरकारी अधिकारियों के साथ मिलकर अपने आवास स्थलों के संरक्षण में जुटे हैं क्योंकि इसी से ही दीर्घकाल में उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति हो सकती है। सरिस्का बाघ रिजर्व में राजस्थान के गाँवों के लोग वन्य जीव रक्षण अधिनियम के तहत यहाँ से खनन कार्य बन्द करवाने के लिए संघर्षरत है।

कई क्षेत्रों में तो लोग स्वयं वन्य जीव आवासों की रक्षा कर रहे हैं और सरकार की ओर से हस्तक्षेप भी स्वीकार नहीं कर रहे हैं। राजस्थान के अलवर जिले में 5 गाँवों के लोगों ने तो 1,200 हेक्टेयर वन भूमि भैरोदेव डाकवा “सेन्चुरी” घोषित कर दी जिसके अपने ही नियम कानून है; जो शिकार वर्जित करते हैं तथा बाहरी लोगों को घुसपैठ से यहाँ के वन्य जीवन को बचाते हैं।

 

हिमालय में प्रसिद्ध चिपको आंदोलन  कई क्षेत्रों में वन कटाई रोकने में ही कामयाब नहीं रहा अपितु यह भी दिखाया कि स्थानीय पौधों की जातियों को  प्रयोग करके सामुदायिक वनीकरण अभियान को सफल बनाया जा सकता है।

 

टिहरी में किसानों का बीज बचाओ आंदोलन और नवदानय ने दिखाया है कि रसायनिक उर्वरकों के प्रयोग के बिना भी विविध फसल उत्पादन द्वारा आर्थिक रूप से कृषि उत्पादन संभव है। 

 

भारत में संयुक्त वन प्रबंधन कार्यक्रम क्षरित न के प्रबंध और पुनर्निर्माण में स्थानीय समुदायों की भूमिका के महत्त्व को उजागर करते हैं। औपचारिक रूप में इन कार्यक्रमों की शुरुआत 1998 में हुई जब ओडिशा राज्य संयुक्त वन प्रबंधन का पहला प्रस्ताव पास किया। विभाग के अंतर्गत ‘संयुक्त मन प्रबंधन’ शरित बनों के बचाव के लिए कार्य करता है और इसमें गाँव के स्तर पर संस्थाएँ बनाई जाती है

 

 

 

अध्याय 3 : जल संसाधन

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