अध्याय 9 : क्षेत्रिय संस्कृतियो का निर्माण 

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लोगों का वर्णन करने का एक सबसे सामान्य तरीका है उनकी बोलचाल की भाषा से उन्हें परिभाषित करना। प्रत्येक क्षेत्र की कुछ खास किस्म के भोजन , वस्त्र , काव्य , नृत्य , संगीत और चित्रकला से जोड़ा करते है। जिन्हें हम आज क्षेत्रीय संस्कृतियाँ समझते हैं , वे समय के साथ-साथ बदली हैं और आज भी बदल रही है। ये विचारों के आदान-प्रदान ने एक दूसरे को संपंन्न बनाया है।

 

चेर और मलयालम भाषा का विकास :- महोदयपुरम का चेर राज्य प्रायद्वीप के दक्षिणी-पश्चिमी भाग में , जो आज के केरल राज्य का एक हिस्सा है , नौवीं शताब्दी में स्थापित किया गया। मलयालम भाषा इस इलाके में बोली जाती थी। शासकों ने मलयालम भाषा एवं लिपि का प्रयोग अपने अभिलेखों में किया।

 

शासक और धार्मिक पंरपराएँ :- अन्य क्षेत्रों में क्षेत्रीय संस्कृतियाँ , क्षेत्रीय धार्मिक परपराओं से विकसित हुई थीं। इस प्रक्रिया का सर्वोत्तम उदाहरण है – पुरी , उड़ीसा में जगन्नाथ का संप्रदाय ( जगन्नाथ का अर्थ – दुनिया का मालिक जो विष्णु का पर्यायवाची है ) आज तक जगन्नाथ की काष्ठ प्रतिमा , स्थानीय जनजातीय लोगों द्वारा बनाई जाती है जिससे की जगन्नाथ मुलत: एक स्थानीय देवता थे

 जिन्हे आगे चलकर विष्णु का रूप मान लिया गया। बारहवीं शताब्दी में गंग वंश के राजा अनंतवर्मन ने पुरी में पुरुषोत्तम जगन्नाथ के लिए एक मंदिर बनवाने का निश्चय किया। इस मंदिर को तीर्थस्थल यानी तीर्थ यात्रा के केंद्र के रूप में महत्व प्राप्त होता गया , सामाजिक तथा राजनितिक मामलों में भी इसकी सत्ता बढ़ती गई।

 

राजपूत और शूरवीरता की परंपराएँ :- ऐसे अनेक समूह थे जो उत्तरी तथा मध्यवर्ती भारत के अनेक क्षेत्रों में अपने आपको राजपूत कहते हैं। राजपूतों ने राजस्थान को विशिष्ट संस्कृतिक प्रदान की। ये सांस्कृतिक परंपराएँ वहाँ के शासकों के आदर्शों तथा अभिलाषाओं के साथ धनिष्ठता से जुडी हुई थी।

लगभग आठवीं शताब्दी से आज के राजस्थान के अधिकांश भाग पर विभिन्न परिवारों के राजपूत राजाओं का शासन रहा। पृथ्वीराज एक ऐसा शासक था जिसने रणक्षेत्र में बहादुरी से लड़ते हुए अकसर मृत्यु का वरण किया मगर पीठ नहीं दिखाई।

 

क्षेत्रीय सीमांतों से परे :- कत्थक शब्द ‘ कथा ‘ शब्द से निकला है , जिसका प्रयोग संस्कृत तथा अन्य भाषाओं में कहानी के लिए किया जाता है। कत्थक मूल रूप से उत्तर भारत के मंदिरों में कथा यानी कहानी सुनाने वालों की एक जाति थी। पंद्रहवी तथा सोलहवीं शताब्दियों में भक्ति आंदोलन के प्रसार के साथ कत्थक एक विशिष्ट नृत्य शैली का रूप धारण करने लगा।

राधा-कृष्ण के पौराणिक के रूप में आख्यान लोक नाटय प्रस्तुत किए जाते थे , जिन्हे ‘ रासलीला ‘ कहा जाता था। इसकी प्रस्तुति में किलष्ट तथा दुत पद संचालन , उत्तम वेशभूषा तथा कहानियों के प्रस्तुतिकरण एवं अभिनय पर जोर दिया जाने लगा। तमिलनाडु – भरतनाटयम ,केरल – कथाकली , उड़ीसा – ओडिसी , आंध्र प्रदेश – कुचिपुड़ी

 

संरक्षकों के लिए चित्रकला :- एक अन्य परंपरा जो कई रीतियों से विकसित हुई , वह थी लघुचित्रों की परंपरा। लघुचित्र छोटे आकार के चित्र होते हैं , जिन्हें आमतौर पर जल रंगो से कपड़े या कागज़ पर चित्रित किया जाता है। प्राचीनतम लघुचित्र , ताड़पत्रों अथवा लकड़ी की तख्तियों पर चित्रित किए गए थे।

इनमें से सर्वाधिक सुंदर चित्र , जो पश्चिम भारत में पाए गए जैन ग्रंथों को सचित्र बनाने के लिए प्रयोग किए गए थे। मुगल बादशाह ने कुशल चित्रकारों को संरक्षण प्रदान किया था , जो प्राथमिक रूप से इतिहास और काव्यों की पाण्डुलिपियाँ चित्रित करते थे।

ये पांडुलिपियाँ आमतौर पर चटक रंगों में चित्रित की जाती थीं और उनमें के दृश्य , लड़ाई तथा शिकार के दृश्य और सामाजिक जीवन के अन्य पहलू चित्रित किए जाते थे। अकसर उपहार के तौर पर  चित्रों का आदान-प्रदान किया जाता था। स्मरण रहे की साधारण स्त्री-पुरुष भी बर्तनो , दीवारों , कपड़ों , फर्श आदि पर अपनी कलाकृतियाँ चित्रित करते थे।

 

एक क्षेत्रीय भाषा का विकास :- बंगाल में लोग हमेशा बंगाली ( बंगला ) ही बोलते थे। किंतु यह एक दिलचस्प बात है की आज बंगाली , संस्कृत से निकली हुई भाषा मानी जाती हैं। प्रारंभिक ( ईसा-पूर्व प्रथम सहस्त्राब्दी के मध्य भाग के ) संस्कृत ग्रंथों के अध्ययन से यह पता चलता है की बंगाल के लोग संस्कृत से उपजी हुई भाषाएँ नहीं बोलते थे।

तो फिर नई भाषा का उद्भव कैसे हुआ ? ईसा पूर्व चौथी-तीसरी शताब्दी से बंगाल और मगध के बिच वाणिज्यिक संबंध स्थापित होने लगे थे जिसके कारण संस्कृत भाषा का प्रभाव बढ़ता गया ब्राह्मणों के बसने से सांस्कृतिक प्रभाव अध्क प्रबल हो गए और चीनी यात्री ह्यून सांग ने यह पाया की बंगाल में सर्वत्र संस्कृत से संबंधित भाषाओं क प्रयोग हो रहा था।

 

पीर और मंदिर :- सोलहवीं शताब्दी से लोगों ने बड़ी संख्या में पश्चिम बंगाल के कम उपजाऊ क्षेत्रों को छोड़कर दक्षिण-पूर्वी बंगाल के जंगली तथा दलदली इलाकों में प्रवास करना शुरू क्र दिया था। प्रारंभ में बाहर से आकर यहाँ बसने वाले लोग इस अस्थिर परिसिथतियों में रहने के लिए कुछ व्यवस्था तथा आश्वासन चाहते थे।

ये सुख-सुविधाएँ तथा आश्वासन उन्हें समुदाय के नेताओं ने प्रदान की। ये नेता शिक्षकों और निर्णायकों की भूमिकाएँ भी अदा करते थे। कभी-कभी ऐसा समझा जाता था , की इन नेताओं के पास अलौकिक शक्तियाँ है। स्नेह और आदर से लोग इन्हें ‘ पीर ‘ कहा करते थे। इस पीर श्रेणी में संत या सूफ़ी और धार्मिक महानुभाव , पीरों की पूजा पद्धति बहुत लोकप्रिय हो गयी तब बंगाल में पंद्रहवी शताब्दी के बाद वाले वर्षों में मंदिर बनाने का का दौर जोरों पर रहा और उनकी प्रतिमाएँ मंदिरो में स्थापित की जाने लगीं।

 

मछली , भोजन के रूप में :- परंपरागत भोजन संबंधी आदतें , आमतौर पर स्थानीय रूप से उपलब्ध खाद्य पदाथों पर निर्भर करती है। बंगाल एक नदीय मैदान है , जहाँ मछली और धान की उपज बहुतायत से होती है। इसलिए यह स्वाभविक है की इन दोनों वस्तुओं को गरीब बंगालियों की भोजन-सूचि में भी प्रमुख स्थान प्राप्त है।

 

 

 

अध्याय 10 : अठारहवी शताब्दी में नए राजनितिक गठन