अध्याय : 7 जनजातियाँ , खानाबदोश और एक जगह बसे हुये समुदाय

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जनजातीय समाज :- अलबत्ता , दूसरे तरह के समाज भी उस समय मौजूद थे। उपमहाद्वीप के कई समाज ब्राह्मणों डरा सुझए गए सामाजिक नियमों और कर्मकांडो को नहीं मानते थे और न ही वे कई असमान वर्गों में विभाजित थे।

अकसर ऐसे समाजों को जनजाति के सदस्य नातेदारी के बंधन से जुड़े होते थे। कई जनजातियाँ खेती से अपना जीविकोपार्जन करती थीं। कुछ दूसरी जनजातियों के लोग शिकारी , संग्राहक या पशुपालक थे। कुछ जनजातियाँ खानाबदोश थी इस उपमहाद्वीप के विभन्न हिस्सों में कई बड़ी जनजातियाँ फली-फूली।

 

जनजातीय लोग कौन थे :- समकालीन इतिहासकारों और मुसाफिरों ने जनजातियों के बारे में बहुत कम जानकारी दी है जनजातीय लोग भारत के लगभग हर क्षेत्र में पाए जाते थे इनका इलाका और प्रभाव समय के साथ-साथ बदलता रहता था। पंजाब में खोखर जनजाति तेरहवीं-चौदहवीं सदी के दौरान बहुत प्रभावशाली थी।

यहाँ बाद में गक्खर लोग ज्यादा महत्वपूर्ण हो गए। उनके मुखिया , कमाल खान गक्खर को बादशाह अकबर ने मनसबदार बनाया था। उत्तर-पश्चिम में एक और विशाल एवं शक्तिशाली जनजाति थी -बलोच। ये लोग अलग अलग मुखियों गड़रिये की जनजाति रहती थी। उपमहाद्वीप के सुदूर उत्तर-पूर्वी भाग भी नागा , अहोम और कई दूसरी जजातियों का पूरी तरह प्रभुत्व था।

बिहार और झारखंड में बारहवीं सदी तक चेर सरदारशाहियों का उदय हो चुका था। कर्नाटक और महाराष्ट्र की पहाड़ियाँ-कोली ,बेराद तथा भीलों की बड़ी जनजाति पश्चिमी और मध्य भारत में फैली हुई थी। मौजूदा छतीसगढ़ , मध्य प्रदेश , महाराष्ट्र और आंध्र प्रदेश में गोड़ लोग बड़ी तादाद में फैले हुए थे।

 

खानाबदोश और घुमंतू लोग कैसे रहते थे :- खानबदोश चरवाहे अपने जानवरों के साथ दूर-दूर घूमते थे। उनका जीवन दूध और अन्य पशुचारी उत्पादों पर निर्भर था। वे खेतिहर गृहस्थों से अनाज ,कपड़े , और ऐसी ही चीजों के लिए ऊन , घी इत्यादि का विनियम भी करते थे। बंजारा लोग सबसे महत्वपूर्ण व्यापारी-खानाबदोश थे। उनका कारवाँ ‘टांडा’ कहलाता था। कई पशुचारी मवेशी और घोड़ों , जैसे जानवरों को पालने-पोसने और भर्मण करते थे। 

 

 

बदलता समाज -नई जातियाँ और श्रेणियाँ :- जैसे-जैसे अर्थव्यवस्था और समाज की जरूरतें बढ़ती गई , नए हुनर वाले लोगों की आवश्यकता पड़ी। वर्णों के भीतर छोटी-छोटी जातियाँ उभरने लगीं उदाहरण के लिए , ब्राह्मणों के बीच नई जतियाँ सामने आई। दूसरी ओर , कई जनजातियों और सामाजिक समूहों को जाति-विभाजित समाज में शामिल कर लिया गया और उन्हें जातियों का दर्जा दे दिया गया। वर्ण की बजाय जाति , समाज के संगठन का आधार बनी।

ग्यारहवीं और बारहवीं सदी तक आते-आते क्षत्रियों के बीच नए राजपूत गोत्रों की ताकत में काफ़ी इजाफा हुआ। राज्यों की उत्पति , जनजातीय लोगो के बीच हुए सामाजिक बदलाव से गहराई से संबंधित है।

 

नजदीक से एक नजर :- गोंड लोग , गोंडवाना नामक विशाल वनप्रदेश में रहते थे। वे स्थानांतरीय कृषि अर्थात जगह बदल-बदल क्र खेती करते थे। विशाल गोंड जनजाति कई छोटे-छोटे कुलो में भी बँटी हुई थी प्रत्येक कुल का अपना राजा या राय होता था। जिस समय दिल्ली के सुलतानों की ताकत घट रही थी, उसी समय कुछ बड़े गोंड राज्य छोटे गोंड सरदारों पर हावी होने लगे थे।

गढ़ कटंगा के गोंड राज्य में 70,000 गाँव थे। यह एक समृद्ध राज्य था। गोंड सरदारों को अब राजपूतों के रूप में मान्यता प्राप्त करने की चाहत हुई। –अहोम लोग मौजूदा म्यांमार से आकर तेरहवीं सदी में ब्रह्मपुत्र घाटी में आ बसे। उन्होंने भुइयाँ ( भूस्वामी ) लोगों की पुरानी राजनीतिक व्यवस्था का दमन करके नए राज्य की स्थापना की।

सोलहवीं सदी के दौरान उन्होंने  कोच-हाजो ( 1581 ) के राज्यों को अपने राज्य में मिला लिया। उन्होंने कई अन्य जनजातियों को भी अधीन कर लिया। अहोमों ने एक बड़ा राज्य बनाया और इसके लिए 1530 के दशक में ही।,

इतने वर्षों पहले , आग्नेय अस्त्रों का इस्तेमाल किया। 1660 तक आते-आते वे उच्चस्तरीय बारूद और तोपों का निर्माण करने में सक्षम हो गए थे। अहोम समाज , कुलों में विभाजित था , जिन्हे ‘ खेल ‘ कहा जाता था। शुरुआत में अहोम लोग , अपने जनजातीय देवताओं की उपासना करते थे। लेकिन सत्रहवीं सदी के पूर्वाद्ध में ब्राह्मणों के प्रभाव में बढ़ोतरी हुई। अहोम समाज एक अत्यंत परिष्कृत समाज था।

 

 

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