प्राचीन भारत का इतिहास – ऐतिहासिक स्रोत 

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प्राचीन भारत :-

 

 प्राचीन भारत का इतिहास बड़ा रोचक है क्योंकि भारत अनेकानेक मानव प्रजातियों का संगम रहा है प्रक -आर्य , हिंद -आर्य ,शक , हूण और तुर्क आदि अनेक प्रजातियों ने आपना घर बनाया प्रत्येक प्रजाति ने भरतीय सामाजिक व्यवस्था , शिल्पकला , वास्तुकला और साहित्य के विकास में यथशक्ति अपना -अपना योग दिया। 

ये सभी समुदाय और इनके सारे सांस्कृतिक इस तरह मिल गए की आज उनमें से किसी को हम उनके मूल रूप में साफ -साफ पहचान भी नहीं सकते है प्राचीन संस्कृति की विलक्षणता यह रही है शब्द जो गंगा के मैदनों में विकसित विचारों और संस्थाओ के घोतक है प्राचीन भारत में हिंदू , जैन , और बौद्ध धर्मों का उदय हुआ परंतु इन सभी धर्मों और संस्कृतियों का पारस्परिक सम्मिश्रण है। 

हमारे देश में विविधताओं के बावजूद भीतर से गहरी एकता झलकती है प्राचीन वंश के नाम पर भारतवर्ष नाम दिया गए और सिंधु घाटी सभ्यता को सिंधु या इंडस नाम दे दिया

कालक्रमेण हमारा देश इंडिया के नाम से मशहूर हुआ जो इसके यूनानी पर्याय के बहुत निकट है यह फारसी और अरबी भाषाओं में हिंद नाम से विदित हुआ भरतीय इतिहास की यह विशेषता है की यहाँ एक विचत्र प्रकार की सामाजिक व्यवस्था उदित हुई उत्तर भारत में वर्ण व्यस्वस्था या जाती प्रथा का जन्म हुआ जो सरे देश में व्याप्त हो गई प्राचीन काल में जो लोग बाहर से आए वे भी किसी -न – किसी वर्ण जाति में मिल गए वर्णव्यस्था ने ईसाइयों और मुसलमानों को भी प्रभावित किया।

 

प्राचीन भारतीय इतिहास के आधुनिक लेखक 1776 में मनुस्मृति का अंग्रेजी अनुवाद ए कोड ऑफ जेंतू लॉज के नाम से कराया गया हिंदुओं के दीवनी न्याय -कार्य में पंडित लोग और मुसलमानों के दीवानी न्याय – कार्य में मौलवी लोग ब्रिटिश जजों के साथ लगा दिए गए प्राचीन कानूनों और रीती -रिवाजों को समझने के लिए प्रयास आरंभ हुआ जो व्यापक रूप से अठारहवीं सदी तक चलता रहा और इसी के परिणामस्वरूप 1784 में कोलकाता में एशियाटिक सोसाइटी ऑफ़ बंगाल नामक शोध संस्था की स्थापना हुई इसकी स्थापना ईस्ट इंडिया कंपनी के सर विलयम जोन्स (1746 -1794 ) नामक सिविल सर्वेंट ने की जिन्होंने 1789 में अभिज्ञानशाकुंतलम नामक नाटक का अंग्रेजी में अनुवाद किया ,

जबकि भगवतगीता का अंग्रेजी अनुवाद 1785 में विलकन्स ने किया 1804 में मुंबई में एशियाटिक सोसाइटी की स्थापना हुई और 1823 में लंदन में एशियाटिक सोसाइटी ऑफ ग्रेट ब्रिटेन स्थापित हुई भारतीय विघा के अध्ययन को सबसे अधिक बढ़ावा दिया जर्मनी के सपूत एफ मैक्स मूलर (1823 – 1902 ) उन्हें महसूस हो गया की जिन विदेशी लोगों पर उन्हें शासन करना है उनके रीती -रिवाज़ों और सामाजिक व्यवस्था का उन्हें गहन ज्ञान प्राप्त करना होगा ऐसे बहुत सरे निष्कर्ष विन्सेंट आर्थर सिम्थ (1834 -1920 )की पुस्तक अर्ली हिस्ट्री ऑफ़ इंडिया में प्रकाशित है उन्होंने प्राचीन भारत का यह फ्लस सुव्यवसिथत इतिहास 1904 में तैयार किया

 

प्राचीन भारत को जानने के ऐतिहासिक स्रोत 

 

 

 

 

इतिहास का निर्माण भौतिक अवशेष :-

प्राचीन भारत के निवासियों ने अपने पीछे अनगिनत भौतिक अवशेष छोड़े है दक्षिण भारत में पत्थर के मंदिर और पूर्वी भारत में ईंटों का विहार आज भी धरातल पर देखने को मिलते है और उस युग का स्मरण कराते है जब देश में भारी संख्यानमे भवनों का निर्माण हुआ प्राचीन काल के लोगों के भौतिक जीवन के बारे में जानकारी मिलती है उसे पुरातत्त्व ( आर्कियोलॉजी )कहते है

 

सिक्के :-

अनेक सिक्के और अभिलेख धरातल पर भी मिले है , पर इनमें से अधिकांश ज़मीन को खोदकर निकाले सिक्कों के अध्य्यन को मुद्रशास्त्र     ( न्यूमिस्मेटिक्स ) कहते है आजकल की तरह प्राचीन भारत में कागज़ की मुद्रा का प्रचलन नहीं था पर धातुधन या धातुमुद्रा

(सिक्का )चलता था पुराने सिक्के तांबे , चांदी , सोने और सीसे के बनते थे सिक्कों पर राजवंशो और देवताओ के चित्र धार्मिक प्रतीक और लेख भी अंकित रहते , जिनसे तत्कालीन कला और धर्म पर प्रकाश पड़ता है

 

अभिलेख :-

इनके अध्य्यन को पुरालेखशास्त्र ( एपिग्राफी )कहते है अभिलेख मुहरों , प्रस्तरस्तंभों , स्तूपों , चट्टानों और ताम्रपत्रों पर मिलते है तथा मंदिर की दीवारों और ईंटों या मूर्तियों पर भी सम्रग देश में आरंभिक अभिलेख पत्थरों पर मिलते है सिक्को की तरह अभिलेख भी देश के विभिन्न संग्रहालयो में सुरक्षित है आरंभिक अभिलेख प्राकृत भाषा में है अभिलेखों में संस्कृत भाषा ईसा की दूसरी सदी से मिलने लगती है अभिलेखों में प्रादेशिक भाषाओं का प्रयोग नौवी -दसवीं सदी में होने लगा मौर्य , गुप्तकाल अधिकांश अभिलेख के साक्ष्य मिले हड़प्पा संस्कृति के अभिलेख अभी तक पढ़े नहीं जा सके अशोक के शिलालेख ब्राह्मी लिपि में है यह लिपि बाएं से दाएं लिखी जाती है उसके कुछ शिलालेख खरोष्ठी लिपि में है जो दाएं से बाएं लिखी जाती है सबसे पूर्ण अभिलेख हड़प्पा संस्कृति की मुहरों पर मिलते है ये लगभग 2500 ई.पू के है और कुछ प्राकृत , संस्कृत , तमिल , तेलुगु आदि

 

 

साहित्यिक स्रोत :-

प्राचीन भारत के लोगों को लिपि का ज्ञान 2500 ई.पू में भी था , भारत में पांडुलिपियाँ भोजपत्रों और तालपत्रों पर लिखी मिलती है ये पांडुलिपियां मेषचर्म तथा काष्ठफलको पर भी लिखी गई हैं। इन्हें हम भले ही अभिलेख कह दे , परंतु है ये एक प्रकार की पांडुलिपियाँ ही उन दिनों मुद्रण कला का अविष्कार नहीं हुआ था इसलिए ये पांडुलिपियाँ मूल्यवान समझी जाती थी वैसे तो समूचे भारत में संस्कृत की पुरानी पांडुलिपियाँ मिली हैं ,अधिकांश प्राचीन ग्रंथ धार्मिक विषयों पर हैं। हिंदुओं के धार्मिक साहित्य में वेद , रामायण , महाभारत , पुराण आदि आते है। यह साहित्य प्राचीन भारत की सामाजिक एवं सासंकृतिक स्थिति पर काफी प्रकश दिलता है ऋग्वेद को 1500 -1000 ई.पू का मन सकते है। लेकिन अथर्ववेद ,यजुर्वेद , ब्राहाणों ,आरण्यकों और उपनिषदों को 1000 -500 ई.पूके लगभग का मन जायेगा वैदिक मूलग्रंथ का अर्थ समझ में आए इसके लिए वेदांगों अर्थात वेद के अंगभूत शस्त्रों का अध्ययन आवश्य्क था। ये वेदांग है शिक्षा (उच्चारण -विधि ), कल्प (कर्मकांड ), व्याकरण , निरुक्त (भाषाविज्ञान ),छंद और ज्योतिष। इनमें से प्रत्येक शास्त्र के चतुर्दिक प्रचुर साहित्य विकसित हुए हैं। पाणिनि का व्याकरण जो 450 ई.पू के आसपास लिखा गया था। महाभारत , रामायण और प्रमुख पुरणों का अंतिम रूप से संकलन 400 ई.के आसपास हुआ प्रतीत होता है। इनमें महाभारत , जो व्यास की कृति माना जाता है और वाल्मीकि रामायण में मूलत थे

 

विदेशी विवरण :-

विदेशी विवरणों को देशी साहित्य का अनुपूरक बनाया जा सकता है। पर्यटन बनकर या भरतीय धर्म को अपनाकर अनेक यूनानी , रोमन और चीनी यात्री भारत आए यूनानी -रोमन लेखक हेरोडोटस (इतिहास का पिता ) , मैगस्थनीज (इंडिका के लेखक ) टॉलमी ( ज्योग्राफी के लेखक ), चीनी लेखक ( फाह्मान , शुंग -युन , हेनसांग , इत्सिंग , अरबी लेखक ( सुलेमान , अलबरूनी )

 

पुरातात्विक साक्ष्य :- अभिलेख, मुद्राएं , स्मारक भवन , मूर्तियां , चित्रकला

धार्मिक साहित्य :- वेद (ज्ञान), उपनिषद (समीप बैठना)आरण्यक , पुराण स्मृति ,रामायण , महाभारत

 

 

 

 

 

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